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भगवान पार्श्व के पंचमहात
श्री पद्मचन्दशा
एम० ए०.
० ए०, दिल्ली कारण बताना भी उचित प्रतीत नहीं होता ।
जहाँ तक मैं समझता हूँ 'चातुर्याम' की मान्यता की स्पष्ट घोषणा श्वेताम्बर धागों की है। इसी के अनुरूप सयम के प्रसंग में दिगम्बरो मे भी एक उल्लेख पाया जाता है' । दिगम्बरों की ओर में चातुर्याम की कई बार कई विद्वानों ने वृष्टि की है। जैसे
पापमि का उपदेश दिया था।'
दिगम्बर मान्यतानुसार जैन आगमों की वर्तमान श्रृंखला, युग के प्रादिनेता तीर्थकर ऋषभदेव मे अविच्छिन्न रूप में जड़ी हुई है। ऋषभदेव द्वारा प्रदर्शित मार्ग को सभी तीर्थंकरों ने समान रूप में प्रवर्तित किया है। इसके मुख्य कारण ये भी है कि
१- सभी तीर्थकर सम-सर्वज्ञ थे अर्थात् सबका ज्ञान पूर्ण सदृशता को लिए था।
२ - सभी की देशनानिरक्षरी थी।
३ -- सभी की सर्वज्ञावस्था की प्रवृत्ति मन के विकल्पों से रहित थी। उसमे होनाधिक वाचन को स्थान [ विकल्पों के प्रभाव में नहीं था
तीर्थकरों ने साधुओ के मूलगुण २८ श्रावार्यो के ३६ और श्रावकों के व्रत १२ ही बतलाए । इन सबकी सख्या मे और सभी के लक्षणो मे कोई भेद नही किया । इसी प्रकार धर्म १० पाप ५, और राज्ञा ४ की संख्या और लक्षणो मे भी उन्होंने कोई भेद नहीं किया। ऐसी स्थिति में यह कहना कि 'भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम का उपदेश दिया' 'बीच के वार्डस तीर्थकरो के समय में भी चार हो महाव्रत थे' - - श्रादि, उपयुक्त नही जँचता । और ऐसी गाली लोगो की बतिया मदी या वे सरल और कूटना के भेद को लिए हुए वे याद १ 'महावीर मे भी विदेह उन्हीं की 'निरक्षरी' ...वाणी की अनुगूज वातावरण में है ।'
--- समणसुत, भूमि०१६ 'गणधर - जो तोपदिष्ट ज्ञान को 'शब्दबद्ध' करते है । वही, पर० शब्दकोष पृ० २६४ । - समणसुत्त 'यह एक सर्व सम्मन प्रातिनिधिक ग्रन्थ है ।' - वही भूमिका पृ० १८ जो जो प देसी वड्ढमाणेस पासेण य महामणी ।।
२.
(उत्तरा० २३/१२)
२ - 'चातुर्याम रूप धर्म के संस्थापक पार्श्वनाथ थे यह एक ऐतिहासिक तथ्य है ।'
भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा संस्थापित चातुर्यान धर्म के आधार पर ही भगवान महावीर ने पच महाव्रत रूप निर्ग्रथ मार्ग की स्थापना की।'
आदि
जहा तक मुझे स्मरण है— इन्दौर से प्रकाशित तीर्थकर-मासिक' के 'राजेन्द्रसूरिविशेषाक मे भी दो विद्वानों के लेखो मे ऐसी ही बातें दुहराई गई थी। इस समय मेरे समक्ष अक न होने उद्धरण नहीं लिख पा रहा हूं । यदि दिविद्वानों की बात को माना निम्न प्रश्नो पर
जाय जैसा कि होना भी चाहिए तो बिचार कर लेना आवश्यक है -
पुरिमा उभ्भुजाउ बनाया। मज्झिमा उज्जुपन्नाउ नेण धम्मे दुहा कए ।' (उत्तराध्ययन, २३।२६) ३. 'बावीस तिस्थयरा सामायिय सजम उवदिसति । छेदुवठावणिय पुण भगव उसहो य वीरो य ।।' (मुला० ७५३३) पुरिमा य पच्छिमा विहु कप्पाकप्प ण जाणति ॥' (मूला० ७।५३५) ४. 'युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।'