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अनेकान्त
गुप्त युग तथा पथकान से निर्मित भगवान महावीर शाल, माम्र प्रादि महत्वपूर्ण वृक्ष माने जाने लगे और की प्रतियां बड़ी सभा में न हुई है। कुछ ऐसे शिला- इनका प्रदशन तीर्थङ्कर प्रतिमामों तथा उनके शासनगप्तकाल से उपलब्न होने लगते है, जिन पर चौबीमों देवताओं के साथ किया जाने लगा । चैत्य वृक्ष ही मदिरों
रों का एक साथ प्रकन मिलता है। गुन युग तथा के प्रारंभिक रूप मान्य हुए। यद्यपि माधुनिक अर्थ में विशेष कर मध्यकाल मे तीर्थकर प्रतिमा के अगल-बगल प्राचीनतम जिन-मदिरो के स्वरूप का स्पष्ट पता हमे नही
पर-नीचे अनेक देवी-देवताग्रो एवं यक्ष, सुपर्ण, है, पर इतना कहा जा सकता है कि अनेक मंदिर ईसा से विद्याधर प्रादि के चित्रण भी मिलते है । ये भगवान के प्रति कई सौ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आ चुके थे। सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए प्रकित मिलते है।
वैशाली के ज्ञातृ कुल मे वैशाली नगरी के समीप कर महावीर की गुप्तकालीन कतिपय मूर्तिया भारतीय ग्राम मे (माघनिक 'वासुकुड') मे ई. पूर्व ५६ मे भगकला के सर्वोत्तम उदाहरणों मे गिनी जाती है। वान महावीर का जन्म हुमा। उनके पिता सिद्धार्थ इस भगवान् की शात. निश्चल मुद्रा को प्रदर्शित करने मे कुल के मुखिया थे। महावीर की माता त्रिशला विदेही कलाकारों ने अत्यधिक सफलता प्राप्त की। मूतियां वैशाली के चेटक नरेश को बहन थी। प्राचीन जैन ग्रंथो मे अधिकतर पदमासन में मिलती है। सिर पर कचित केश महावीर स्वामी की 'विदेहसुकुमार' तथा 'वैशालिक' नाम तथा वक्ष पर वयं मानक्य' चिन्ह मिलता है। अग-प्रत्यगो भी दिए गए है। उन्होने दक्षिण बिहार पर्वतीय तथा जागकी गठन बड़ी सुगढ होती है।
लिक प्रदेश में अनेक वर्ष बिताये । इससे यह स्वभाविक था तीर्थकर महावीर स्वामी के मन्दिरो का निर्माण कब कि वह क्षेत्र महावीर स्वामी के उपदेशों का विशेष पात्र से प्रारम्भ हमा, यह एक विवादग्रस्त बात है। प्राचीन होता। जैन अनुश्रुतियो के अनुसार, राजगह महावीर जन प्रागमों में प्राय. तीर्थकर-मन्दिरो का उल्लेख नही स्वामी को मवमे अधिक पसंद था। उन्होंने चौदह वर्षामिलता। महावीर स्वामी प्रपने भ्रमण के समय मन्दिरो वास राजगृह तथा नालदा में किये । राजगह में महावीर मे नही ठहरते थे, बल्कि 'चैत्यो' मे विश्राम करते थे। के पूर्वज तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत का जन्म हम्रा था। मुनिइन चैत्यों को टीकाकारो ने 'यक्षायतन' (यक्ष का पूजा- सुव्रत का नाम मथुरा से प्राप्त द्वितीय शती की प्रतिमा स्थल) कहा है। भारत में यक्ष पूजा बहुत प्राचीन है। पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण मिलता है।
या पानों में की जाती थी। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान महावीर का भगवती सत्र नामक जैन ग्रंथ के अनुसार भगवान महावीर निवाण बहत्तर वर्ष की आयु में पावापुरी मे प्रा। ने 'पृथिवी-शिलापट्ट' के ऊपर बैठकर एक वृक्ष (शाल)
अनेक विद्वान् बिहार प्रदेश के वर्तमान नालदा जिले में के नीचे तप किया, जहा उन्ह सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति हुई। स्थित पावा को प्राचीन पावापुरी मानते है। परन्तु इसे
प्राचीन नगरी मानने में एक कठिनाई यह है कि यहा भगवान बुद्ध ने पीपल-वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था । बुद्ध के उस पासन का नाम 'बोधिमड' प्रसिद्ध बहुत मानीन पुरातत्त्वीय अवशेष नही मिले हैं। विद्वानो हमा । उसका पंकन प्रारम्भिक बौद्धकला में बहुत मिलता
का दूसरा वर्ग प्राचीन पावापुरी को स्थिति उत्तर प्रदेश के
देवरिया जिले में मानता है। इस जिले के फाजिलनगर है, जिसकी पूजा का बड़ा प्रचार हुमा । बोधिमड तथा बद्ध से संबंधित बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप प्रादि की ही
तथा साठियावं नामक गावो के मध्य प्रासमानपुर और प्रारम्भ में पूजा होतो थी। बुद्ध की मानुषी मूर्ति का
उसके समीप अनेक प्राचीन टोले है। इन टीलो से ठोकरो,
सिक्को, मूतियों आदि के रूप मे पुरातत्व की प्रचुर सामग्री निर्माण बाद में शुरूहमा । उसके पहले जैन तीर्थकगे की मानुषी प्रतिमाये पस्तित्व मे मा चुकी थी।
मिली है । जैन साहित्य के भौगोलिक तथा अन्य विवरणो
के माधार पर देवरिया जिले के इस स्थल को ही प्राचीन त्य-पक्ष की पूजा जैन धर्म का भी एक प्रग बन
पावा मानना ठीक प्रतीत होता है। गई । विभिन्न तीर्थ करी से सबंधित चैत्य वृक्षो के विवरण
-अध्यक्ष, पुरातत्व विभाग, जन साहित्य में उपलब्ध है। ऐसे तरुवरो में कल्पवृक्ष,
सागर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश