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________________ मेरी भावना 0 स्व प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' [इस प्रमर कृति 'मेरी भावना' की रचना स्व० प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ने सन् १९१६ में की थी। तब से यह उत्तरोत्तर लोकप्रिय और सर्वप्रिय होकर 'सार्वजनीन भावना' बन गई है। अब तक 'मेरी भावना' का अनुवाद अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, बंगला, गुजराती, मराठी, कन्नड़ पादि सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है और विविध रूपों में सैकड़ों सस्करणों में इसकी लाखों प्रतियां प्रकाशित होकर जन-जन में प्रचारित हो चकी हैं। इस दृष्टि से, 'मेरी भावना' वस्तुतः अपने रचयिता का सच्चा स्मारक बन गई है और यहां पुनरुद्गान एवं पुनःप्रस्तुतीकरण की प्रार्हता रखती है तथा यह इसी प्रकार चिरकाल तक अपने अमर उद्गाता का पुण्य-स्मरण कराती रहेगा। -सम्पादक] (१) जिसने राग-द्वेष-कामादिक जीते, सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्ष-मार्ग का, निस्पह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर जिन, हरि, हर. ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो।। रहे सदा सत्संग उन्हींका, ____ ध्यान उन्हींका नित्य रहे, उनही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे। नहीं सताऊँ किसी जीवको, झठ कभी नहीं कहा करू, परधन-वनिता पर न लभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ ॥ (२) विषयों की प्राशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं, निज-परके हित-साधनमें जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ-त्यागकी कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख-समूह को हरते हैं। महंकार का भाव न रक्खं, नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्षा-भाव धरू। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य-व्यवहार करूँ, बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ॥
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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