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मेरी भावना
मंत्री - भाव
( ५ ) जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उरसे करुणा-स्रोत दुर्जन- क्रूर- कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको साम्यभाव मैं रक्खूँ उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ॥
बहे
श्रावे,
( ६ ) गुणी-जनों को देख हृदय में,
मेरे प्रेम उमड़ श्रावे, बने जहाँ तक उनकी सेवा,
करके यह मन सुख पावे । होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं,
ब्राह न मेरे उर श्रावे, गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥
( ७ )
जावे,
या
कोई बुरा कहो या श्रच्छा, लक्ष्मी आवे लाखों वर्षों तक जीऊँ, या मृत्यु आज ही भाजावे । अथवा कोई कैसा हो भय या लालच देने प्रावे, तो भी न्यायमार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ||
( ५ )
होकर सुख में मग्न न फूले, दुख में कभो न घबरावे, पर्वत - नदी -स्मशान - भयानक
श्रटवी से नहीं भय
खावे ।
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रहे डोल कंप निरन्तर,
यह मन, बुढ़तर बन जाये, इष्ट वियोग-प्रनिष्टयोग में, सहनशीलता
दिखलावे ॥
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सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कभी न घबरावे, बंर पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे । घर-घर चर्चा रहे धर्म की,
दुष्कृत दुष्कर हो जायें, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना
मनुज जन्म-फल सव पावें ॥
( १० )
ईति-भीति व्यापे नहि जग में,
वृष्टि समय पर हुआ करे, धर्म निष्ठ होकर राजा भी,
न्याय प्रजा का किया करे । रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले.
प्रजा शान्ति से जिया करे, परम अहिंसा धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे ||
( ११ )
फैले प्रेम परस्पर जग में,
मोह दूर पर रहा करे, श्रप्रिय-कटुक-कठोर शब्द नहि,
कोई मुखसे कहा करे । बनकर सब 'युगवीर' हृदय से
देशोन्नतिरत रहा करें, वस्तुस्वरूप विचार खुशी से,
सब दुख-संकट सहा करें ||
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