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________________ सरल स्वभावी महान आराधक 0 श्री रमाकान्त जैन, लखनऊ अपने बाल्यकाल मे जो कविताएं मुझे पढ़ने को निवास के लिए चुना था और वहां भगवान महावीर की मिली उनमें एक थी 'मेरी भावना' । प्रात्म-विकास में सेवा करने, अथवा यूं कहिये, उसके बहाने अपनी साहित्य सहायक और एक अच्छे नागरिक बनने की भावना को साधना के लिये काफी बड़ी भूमि पर जो सादा किन्तु प्रस्फुटित करने वाली इग रचना के रचयिता थे प० भव्य भवन बनवाया हुअा था वह मंदिर तो नहीं प्राथम जुगलकिशोर मुख्तार । घर मे जो पत्र-पत्रिकाए माती थी। या गुरुकुल सरीखा था। उस भवन की चहारदीवारी के उनमें एक था सरसावा जिला महारनपुर से प्रकाशित भीतर केवल भगवान महावीर के उपासक साहित्यसाधकों होने वाला मासिक पत्र 'अनेकान्त' । इस गामिक पत्र के का ही निवास था। पं० जुगलकिशोर जी गुरु और सम्पादक भी प० जुगलकिशोर मुख्तार थे। अतः अपने अन्य अनेक विद्वान उनके शिष्य समान प्रतीत होते थे। बालपन में ही मैं मख्तार श्री के नाम से परिचित हो भवन के मुख्य खण्ड में जिसमे पंडित जी निवास करते थे, गया था। संयोग में सन् १९८७ मे जब मै ग्यारह वर्ष तीन कक्ष थे-बीच में एक बहुत बड़ा हाल तथा दो का बालक था तभी उनके दर्शनो का भी सौभाग्य मझे बगली कमरे । बीच के बड़े हाल में पंडित जी का पुस्तक प्राप्त हुप्रा । उन दिनों मेरे पिता जी डा० ज्योतिप्रसाद मंग्रह था और उसमें पं० परमानन्द शास्त्री और न्यायाजी उनकै मान्निध्य में सरसावा में रहकर साहित्य-साधना चार्य पं. दरवारी लाल कोठिया बैठकर कार्य करते थे । कर रहे थे। अपना ग्रीगायका। पिता जी के पास दाहिनी ओर का बगली कक्ष पिताजी का कार्यस्थल और व्यतीत करने मैगी पनऊ में गरगावा गगा था। चार्या ग्रोर का बगली कक्ष मुरूनार साहब का विश्राम एवं वहीं ग्रांड ट्रक रोड पर स्थित वीर मेवा मन्दिर में, नो माधना स्थल था । इन कक्षो के मागे चबूतरा था और प्रचलित अर्थ मे मन्दिर न होकर उनका निजी भवन था, उग उमके पागे बड़ा खुला हृमा माँगन था। चारदीवारी से विद्वाम-पत्रकार-कवि की सौम्ब प्राकृति को देखा। उम लगदा अन्दर की मोर खुलने वाले कमरों में हमारा समय लगभग सत्तर वर्ष उनकी प्रायुर ही होगी। देखने में और प० परमानन्द जी शास्त्री का परिवार रहता था। वद्ध थे, किन्तु मानसिक अथवा शारीरिक किगी भी बडा शान्तिपूर्ण वातावरण था। भवन में पानी का बम्बा प्रकार से शिथिल नही थे। उन वयोवद्ध को, निन्हे पिता नही था अपितु एक हैण्ड पम्प था। भवन से लगी हुई जी भी बुजुर्ग का सम्मान दे रहे थे, मैंने प्रथम दर्शन में नीब और नारंगी के पेड़ो की एक बगिया भी थी, बावा जी कहकर सम्बोधित किया था, ऐसा मझ स्मरण जिसका दरवाजा प्रायः बन्द रहा करता था। पड़ता है। गरमी के दिन थे । प्रतः तड़के ही उठकर स्नानादि मस्तार साहब तब केवल नाम के महतार थे । देव- से निवत्त हो कस्वे के मदिर में दर्शन कर पिताजी सात वन्द मे मुख्तारी छोड़े उन्हें एक प्रर्सा बीत चुका था। बजे तक अपने कक्ष में पहुंच जाते थे और मैं भी उनका पत्नी मोर पुत्री के काफी दिनो पहले ही विदा ले चुकने साथ देता । अन्य विद्वान भी अपने कक्ष में पा जाते थे। के कारण घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो एकाको पंडित जगलकिशोर जी भी अपने कक्ष में अपने कार्य पर जीवन अतीत करते करते हुए वे खुद-मुख्तार हो गये थे। लगे दीखते । पिता जी दस बजे तक अनवरत रूप से __ कदाचित् शहर के कोलाहलपूर्ण वातावरण से बचने अपने कार्य में लगे रहते । मैं भी समय काटने हेतु उनके के लिए ही तब उन्होंने सरसावा जैसे कस्बे को अपने पास बैठा हप्रा कुछ न कुछ अध्ययन-मभ्यास करता मार
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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