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सरल स्वभावो महान माराधक
कुछ नहीं तो पंडित जी के पुस्तकालय से निकलवाकर रुचि से मैंने कुछ घटाया-बढ़ाया है, जैसे उस पद में जहाँ कोई रोचक किताब ही पड़ता रहता था। दस बजे उठ मैंने यह कहा है "अथवा कोई कैसा ही भय या लालच कर मैं पंडित जी को भोजन के लिये बुलाने चला जाता देने पावे" उसका कोई उल्लेख तुम्हारे श्लोक में नही है था। उन दिनों वह हमारे यहां ही भोजन करते थे। और वैसे भी कई शाब्दिक हेरफेर है।' पंडित जी के भोजन के समय वह प्रायः मौन रहते थे। वैसे भी मित- स्थान पर कोई अन्य व्यक्ति होता तो कदाचित मझसे भाषी थे। 'भनेकान्त' के सम्पादकाचार्य मझे तो एकान्त- रुष्ट हो जाता और बिगड़कर कहता कि छोटे मह बड़ी प्रिय मोर स्वकेन्द्रित प्रकृति के ही लगे। अधिकांशत: वह बात करते हो, किन्तु पडित जी ने जिस सहज भाव से अपने कक्ष में बैठे हुए लेखनी ही चलाते रहते थे ।
मेरी बात सुनकर उसे सराहते हुए अपनी बात समझाई
वह उनके विनम्र स्वभाव और बड़प्पन की परिचायक है। मायंकाल के भोजनोपरान्त कभी-कभी हम लोगो के पास भी प्रा बैठते और पिताजी से इधर-उधर की विविध वीर सेवा मन्दिर मे मैं लगभग डेढ माह रहा। इस बीच विषयों पर चर्चा होती और मैं मौन श्रोता का कार्य पहाँ दो एक साधु-मन्तोको, जो जनेतर थे, पाते-ठहरते करता । किन्तु एक दिन मैने भी चर्चा में भाग लेने का देवा। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को वीर शासन-जयन्ती का साहस किया। कक्षा सात को सस्कृत की पोथी में प्रायोजन हमारप्रभात-फेरी के उपरान्त ध्वजारोहण हुमा । सुभाषितानि में मैने इनक पढ़ा था---
जम अवसर पर बाहर से भी कई सज्जन पधारे थे जिनमे निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वास्तचन्त, .
दिल्ली के श्री माईदया न जंन के नाम का मझे अब भी
सारण है, और मुख्तार गाहब की ओर से सबके सामूहिक लक्ष्मी समाविशन गच्छनु वा यथेष्टम्, प्रघंव मरणमरतु युगान्तरे वा
भोजन का प्रबन्ध हुमा था। न्यायात्वथः प्रविचलन्ति पद न धोगः ॥
ग्रीष्मावका समाप्त होने पर मैं लखनऊ वापस मुझे लगा कि पडित जी की मेरी भावना का निम्न चला पाया और कुछ दिनो वाद पिताजी भी सरनावा से पद उनकी मौलिक रचना न होकर उपयुक्त श्लोक का लखनऊ चने आये । अब तीस वर्ष पुगनी वह प्रवास कथा अनुवाद मात्र है
हो गई है और उसके मम्मरण भी स्मृतिपटल पर धूमिल कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी प्रावे या जावे,
हो चले है । अभी तीन-चार दिन पूर्व पिताजी से यह लाखों वर्षों तक जीऊं या मृत्यु प्राज ही पा जावे।
सुनकर कि पडित जगल किशोर मसार को जन्मशती
आगामी २० दिसम्बर को और उनकी नौवी पुण्यतिथि अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने पावे, तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ।
२२ दिसम्बर को पड रही है, मझे भी अकस्मात् पडितजी
के साथ बीता वह डेढ माह का प्रवास और अपने बालहल्दी की गांठ लेकर पंसारी बन बैठने की कहावत मन पर पड़ी उनकी छाप की याद ताजा हो पाई। को चरितार्थ करते हुए मैने एक सायंकाल पडित जी का फलस्वरूप प्रस्तुत सस्मरण द्वारा उन सरल स्वाभावी ऋषिछेड़ ही दिया कि उनकी 'मेरी भावना' के पद तो संस्कृत तुल्य, सरस्वती के महान पाराधक के प्रति इस सुअवसर सुभाषितो के अनुवाद मात्र हैं, जैसे 'कोई बुरा कहो या पर अपनी श्रद्धाजलि अपित करने हेतु लेखनी को नहीं मच्छा' वाला पद निन्दातु नीतिनिपुणाः' श्लोक का रोक सका। अनुवाद है। विना बुरा माने वह सहज भाव से बोले-'तुमने यह बात सही पकड़ी है कि 'मेरी भावना' के पद सस्कृत
OOD सुभापितों के अनुवाद है, किन्तु वे मात्र शब्दानुवाद न ज्योति निकुज, होकर भावानुवाद या छायानुवाद है मोर, उनमे अपनी चारबाग, लखनऊ-१