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________________ अनुसंधान के आलोक-स्तम्भ 0 डा. प्रेमसुमन जैन श्रदेय. जगलकिशोर जी मस्तार जैन समाज क पर 'जैनाचायो तथा जैन तीर्थंकरों में शासनभेट' सानों में से हैं, जो समाज व देश को जगाने के नाम से एक लेखमाला का प्रारम्भ किया, जिसमें प्राप के लिए ही जन्मते है। मुख्तार जी का सम्पूर्ण जीवन ने प्रमाणित किया कि बीरशासन (जैन me जैन-साहित्य के अध्ययन-अनुसंधान में ही व्यतीत हुआ रूप एकान्त मौलिक नहीं है। उसमें बहुत कुछ मिश्रण के प्रधिकांश विद्वानो के वे प्रेरणास्रोत थे। पत्र. हमा है पौर संशोधन की मावश्यकता है। यद्यपि इसके कारिता के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया है। विरुद्ध भी भावजें उठायी गयीं, लेकिन श्री मस्तार जी मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे उनके दर्शन प्राप्त करने का अवसर अपनी स्थापनामों पर अटल रहे और शान्त भाव से प्राप्त नही हुमा। यद्यपि उनके गवेषणापूर्ण लेखो एवं मध्ययन करने रहे। भाप अपनी स्थापना के प्रति ग्रन्थों का अवलोकन मैं मननपूर्वक करता रहा हूं। विश्वत रहते थे, क्योंकि कोई बात विना प्रमाण के नहीं विsan RA उनकी गवेषणात्मक निष्पक्ष दृष्टि ने मुझे अधिक प्रभावित लिखते थे। श्री नाथुराम जी प्रेमी ने भाप की प्रमाणिकता किया है। के विषय में लिखा है-'माप बड़े ही विचारशील लेखक श्री मुख्तार जी में अनुसंधान की प्रवृति १९०७ में हैं। माप की कलम से कोई कच्ची बात नहीं निकलती। जैन गजट के सम्पादक होने के बाद प्रारम्भ हुई । इसी को लिखते हैं बरम वर्ष में १ सितम्बर के अंक में प्रकाशित प्रापके लेख 'हर्ष समाचार' से अनुसन्धान के प्रति पाप की बढ़ती हई 'ग्रन्थपरीक्षा' का तीसरा भाग अब १९२८ में प्रकामभिरुचि का पता चलता है तथा ८ सितम्बर, १६.. शित हुमा तो मुख्तार जी के गहन अध्ययन एवं प्रमाके अंक म सम्मेद शिखर तीर्थ के सम्बन्ध में लिखा गया णिकता से अधिकाधिक लोग परिचित हुए। जो लोग जैन पापका अग्रलेख इस प्रवृति की पुष्टि करता है। जैन गजट' धर्म को प्रक्षेत्रों से दूषित कर रहे थे, सत्यता प्रकट होते ही शान्त हो गये । श्रीमान् प्रेमी जी ने उक्त ग्रंथ की भूमिका के सम्पादक कार्य से जो समय बचता था, मुख्तार जी उसे जन-साहित्य के गम्भीर अध्ययन में लगाते थे। इस में लिखा है-'मैं नहीं जानता है कि पिछले कई सौ वर्षों से किसी भी जैन विद्वान ने कोई इस प्रकार का समामध्ययन का यह सुफल हुआ कि भट्टारको द्वारा जैन शास्त्रों मे जो जन-धर्म के विरुद्ध बातें लिख दी गयी थी, उनका लोचक अप इतने परिश्रम से लिखा होगा...... - इस प्रकार के परीक्षा लेख जैन साहित्य में सब से पहिले निराकरण करना मुख्तार जी ने प्रारम्भ कर दिया। केवल इतना ही नहीं, उन्होने अपने अध्ययन के प्राधार पर एक हैं ............."जांच करने का यह ढंग बिल्कुल नया है और मौलिक खोज यह भी की कि जैन-शास्त्रो के प्रक्षिप्त प्रशों इसने जैन धर्म का तुलनात्मक पद्धति से अध्ययन करने वालों के लिए एक नया मार्ग खोल दिया है।' के मूल स्रोत भी खोज निकाले । बाद में यही खोज 'ग्रन्थपरीक्षा' नामक पुस्तक के चार भागो मे प्रकाशित हुई। श्री मुख्तार जी की इन सूक्ष्म भोर मौलिक दृष्टि __ मख्तार जी ने जैन-साहित्य के अध्ययन और अनु- से मैं तभी परिचित हमा जब किसी वसुनन्दि नाम के सन्धान के लिए मुख्तारगिरी को भी छोड़ दिया। प्राचार्य द्वारा लिखित प्राकृत रचना 'तत्व-विचार' का एकचित्त होकर वे जैन-साहित्य की सेवा में लग गये। परीक्षण कर रहा था। यह ग्रन्थ ३०० गाथामों का है। १९१६ के लगभग पापने अपने गम्भीर अध्ययन के माधार माचार सम्बन्धी जैन धर्म के प्रमुख तत्वों का इसमें सुन्दर
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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