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अनुसन्धान के पालोक-स्तम्भ
नहीं होता।
इसके लिए गहनार साहव के इस
वर्णन है। श्री मुख्तार जी ने बम्बई प्रवास में इसकी प्राधार पर पुनराकलन । प्रापने विशाल जैन-साहित्य में पांडुलिपि देखी थी। वहां से पाकर पाप ने अनेकान्त मे लिखे उल्लेखों के प्राधार पर ऐसे बहुत से अप्राप्य ग्रन्थों एक लेख लिखा, जिसमें यह सम्भावना व्यक्त की कि की एक सूची तैयार की थी। कुछ ग्रन्थों की प्राप्ति भी 'तत्व विवार' मौलिक ग्रन्थ प्रतीत नही होता। इसे उन्हें हुई थी। किन्तु यह अधिकांश कार्य अधूरा ही पड़ा सग्रह ग्रन्थ होना चाहिए। मस्तार जी की इस सूचना ने है। इसके लिए गहन अध्ययन एवं अथक परिश्रम की मुझे सतर्क कर दिया और जब मैंने सूक्ष्म दृष्टि से ग्रन्थ अावश्यकता है। फिर भी मुख्तार साहव के इस कार्य को का परीक्षण किया तो सचमुच 'तत्वविचार' की लगभग पूरा करने से, मैं समझता हूँ, उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि २५० गाथायें अन्यान्य २०-२२ प्राकृत के प्रथों से संग्रहीत ही मर्पित नहीं होगी, अपितु जैन-साहित्य की बहुत बड़ी की गयी मिली, जिनमें कुछ श्वेताम्बर ग्रन्थ भी है। श्री सेवा भी। मुख्तार सा० के 'पुरातन जैन वाक्य सूची' प्रन्थ से इस सम्बन्ध में मुझे पर्याप्त सहायता मिली। श्री मुख्तार सा. श्री मुख्तार साहब की अनुसंधान प्रवृत्ति के विकास का यह प्रयत्न अपने ढंग का अकेला रहा है। वे कितने का फल 'अनेकान्त' है। अनेकान्त के प्रकाशन से केवल परिश्रमी थे यह जानने के लिए अकेला यही एक अन्य जन-साहित्य ही प्रकाश में नहीं पाया, बल्कि जैन विद्वानों पर्याप्त है।
की एक लम्बी परम्परा प्रारंभ हुई। मुख्तार सा. के अनुसंधान के क्षेत्र में श्री मुख्तार सा० का दूसरा
सम्पादकीय टिप्पणों से कोई अच्छे से अच्छा लेखक भी प्रशंसनीय कार्य जैनाचार्यों के विषय में खोजवीन करने नहीं छूट सका। उन्होंने लेख को हमेशा देखा है, लेखकों का है। पात्र केसरी और विद्यानन्द की पथकता प्राप के को नहीं । शायद इसी का यह परिणाम है कि लेखन में प्रयत्न से ही मान्य हो सकी। पंचाध्यायी के कर्ता की दिनोदिन प्रामाणिकता की वृद्धि होती गयी और कई मापने खोज की तथा महान प्राचार्य स्वामी समन्तभद्र लेखक मुख्तार सा० को इस कृपा से पाठकों में उनसे भी के इतिहास एवं साहित्य के विषय में तो आपने अपना ऊँचा स्थान प्राप्त कर सके। जीवन ही लगा दिया है। श्री मुख्तार सा० को जैन शासन
इस तरह स्वर्गीय श्री मुख्तार सा० की जैन-साहित्य के प्रति इस सेवा को देखते हुए प० राजेन्द्रकुमार जी
के अनुसंधान के क्षेत्र में पूर्व देन है । जीवन के अन्तिम का कथन यथार्थ है कि 'मुख्तार साहिब यह काम न करते
दिनों में भी वे उसी उत्साह और लगन के साथ साहित्य तो दिगम्बर-परम्परा ही प्रस्त-व्यस्त हो जाती। इस
साधना में रत रहे। वे अनुसंधान के एक ऐसे पालोककार्य के कारण मैं उन्हें दिगम्बर परम्परा का संरक्षक
स्तम्भ थे, जिससे निरन्तर अनेक दीपक प्रज्वलित होते मानता हूं।' इसी तरह महावीर भगवान के समय मादि
रहे है। मुख्तार सा० ने हनेशा सबको गति प्रदान की के सबन्ध में जो मतभेद एवं उलझनें उपस्थित थीं उनका
है। ऐसा लगता है कि अपने मन्तिम दिनो में भी वे इस प्रत्यन्त गम्भीर अध्ययन करके आपने सर्वमान्य समन्वय
स्वभाव को नहीं भूले तथा जब अपनी अन्तिम सांसों के किया और वीर शासन-जयन्ती की खोज तो आपके जीवन
कारण गतिरोध हो रहा था तो मुख्तार सा० ने अपनी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है।
सांसें उन्हें प्रदान कर दी। समय भी उनसे उपकृत हो श्री मुख्तार साहव ने एक और महत्वपूर्ण कार्य का गया। ऐसे महान तपस्वी के चरणों में मुझ अकिंचन के सूत्रपात्र किया। वह है विलुप्तप्राय ग्रन्थों का सन्दर्भो के अनन्त प्रणाम ।
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१. अनेकान्त, वर्ष प्रथम, किरण ५, पृ० २७५. २. इस विषय का लेखक का एक लेख अनेकान्त की वर्ष २१ की किरण ७ में प्रकाशित हुमा है। ३. 'जैन जागरण के अग्रदूत' में प्रकाशित परिचय के माधार पर ।