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युगसृष्टा की साहित्य-साधना
एवं प्राचीन महाग्रंथों का सरल भाषा में अनुवाद प्रादि कराकर धर्म का प्रचार व प्रसार करना था। कई साल तक यह क्रम सुचारू रूप से चलता रहा। इसी बीच उद्योग पति श्री छोटेलाल जी ने सलाह दी कि सरसावा जैसे छोटे कस्बे में अपने उद्देश्य की पूर्ति होना कठिन है। प्रेस आदि की असुविधा है। अतः इस उपयोगी सस्था को देहली में स्थापित किया जाय, जहां नित्य ही विद्वानो का समागम स्वयमेव होता रहेगा और अनेक सुविधाएं उपलब्ध होंगी ।
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फलतः २१ नं० दरियागंज मे वीर सेवा मदिर का एक निजी भवन बनाकर संस्था का कार्य चालू किया गया । इतना सब कुछ करते हुए भी ये धर्म में बड़े दत्तचित्त थे । घंटों तक ध्यान, स्वाध्याय व अनेको पाठ नित्य करते इन्होने श्री महावीर जी क्षेत्र पर जाकर वर्धमान स्वामी की प्रतिमा के समक्ष सातवी प्रतिमा धारण की जिगका अन्त समय तक पालन किया । ग्राजकल के त्यागियों जैसा उनका त्याग नही था । जो भी त्याग किया केवल वाह्यन हो प्रातरिक ज्यादा रहा। दिल्ली के विद्वानों, श्रीमानों का सहयोग प्राप्त हुआ, इसके गंतवा छोटेलाल जी व मुख्तार साहब के मन में जैन लक्षणावली बनाने की प्रबल उत्कण्ठा हुई । परन्तु इतना महान कार्य प्रासानी से होने वाला नहीं था "बादृशी भावना यस्य सफलीभवनि तादृशी" के अनुसार यह दुःसाध्य कार्य प्रारम्भ कर ही दिया, परन्तु खेद है कि उनके जीवन काल में यह प्रकाशित न हो सका । काश हो जाता तो वे कितना प्रफुल्लित होते । फिर भी उन्हें सन्तोष था कि कभी न कभी अवश्य प्रका शित हो जायगा । इस कार्य पूर्ति के लिए ग्रंथो का विशाल संग्रह किया गया तथा प्रति परिश्रम से यह कार्य सम्पन्न हुआ ।
मुख्तार साहब के हृदय में वीर भगवान की वाणी का प्रसार करने की उत्कट भावना थी। इससे प्रेरित होकर उन्होंने 'वीर सेवा मंदिर मे वीर-शासन- जयन्ती महोत्सव बड़े समारोहपूर्वक मनाया जगह २ से विद्वान बुलाए जिन्होने वीर शासन का महत्व बतलाया । यही तक नही, वा० छोटेलाल जी व मुख्तार साहब ने राजगृही ये हो, जहाँ भगवान की लीद विरोधी, यह
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महोत्सव बड़े पैमाने पर मनाया । फिर कलकत्ते में भी घूमधाम से मनाया, बाद में भी दिल्ली में मनाते रहे। बीच मुख्तार साहब प्रोर वा० छोटेलाल जी में कुछ मतभेद होने के कारण विशेष योजना कार्यान्वित न हो सकी।
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भाई साहब हमारे यहा बहुत प्राते थे। हमारी दादी जी उनसे अत्यन्त प्रेम रखती थी, यहां तक कि उन्हें गोद लेने को तैयार थी. परंतु कानून न होने से गोद तो नहीं लिया, फिर भी पुत्रवत स्नेह करती थी। वे भी मां के बराबर ही समझते थे। मेरे माता-पिता का देहान्त होगया था। मैं दादी बुम्रा कि संरक्षण में रही। उन्होने म् के पढ़ने के लिए इन्ही भाई साहब के पास देववन्द भेज दिया। ये मुझे बड़े प्यार से रखते तथा शिक्षा देते रहे। जब इनकी पत्नी का देहान्त हो गया तब इन्होंने शिक्षा प्राप्त करने पं० चन्द्रावाई जी के पास भेज दिया। वहा रहकर मैंने १३ बर्ष की उम्र में संस्कृत प्रथमा तथा धर्म मे विशारद पास की। यह सब श्रेय भाई साहब को ही था, जिन्होंने इतनी शिक्षा प्राप्त कराई। मेरा जन्म, शिक्षा, विवाह तथा वैधव्य प्रादि सभी इनके ही सान्निध्य में
हुआ ।
जब आपने वीर सेवा मंदिर स्थापित किया, तब मैं महीनों वहाँ रहती थी। वहां पर एक कन्याशाला स्थापिता की जिसमें बालिकाओं को स्वयं पढ़ाती थी। एक महिला सभा कायम की, जिसमे स्थानीय महिलायें भाग लेती थी भौर बहुत-कुछ भाषण देना सीख गई थीं। भाई साहब के संस्था के कार्यों में मैं महायता करती थी, जैसे ग्रंथों की अनुक्रमणिका का बनाना, लेख आदि की प्रेस कापी बनाना, पत्र-व्यवहार करना यादि २ ।
जब संस्था दिल्ली में आ गई, मैं तब भी इनके पास रही और वीर सेवा मंदिर की सदस्या होकर संस्था के कार्यों में यथाशक्य लगी रहती थी। अब ये वृद्धावस्था के कारण अशक्त रहने लगे, तब इस स्थिति मे डाक्टरों की श्रावश्यकता पड़ने लगी । प्रतः इनके छोटे भाई के लड़के डाक्टर श्रीचन्द इन्हें अपने साथ एटा ले गए। वहां परि चर्चा होती रही । अन्त मे रोग ने जोर पकड़ा और वे समाधिपूर्वक हम सबको छोड़कर चल दिए ।
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