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________________ युगसृष्टा की साहित्य-साधना ॥ श्री मती जयवन्ती देवी प्राच्यविद्या महार्णव श्रद्धेय पं० जगल किशोर जी का प्रायु में वह भी न रही। इन सब संकटों के बावजूद भी जन्म सरसावा (जि. सहारनपुर) निवासी ला० नत्समन मुख्तार साहब साहित्य-निर्माण में और भी अधिक संलग्न जी के यहां हरा था। रिश्ते में ये मेरे भाई लगते थे। हो गए। उनकी स्मृति में इन्होंने एक ग्रंथमाला बचपन में ही इनकी प्रतिभा-बद्धि की प्रखरता ने सबको भी निकालने का विचार किया था, उसका पूरा विवरण चकित कर दिया था। प्रत्येक स्कूल में इन्हे मान्यता अनेकान्त में प्रकाशित है। मेरी भावना, द्रव्य पूजा, प्राप्त थी। स्कालरशिप मिलते थे। घापिक परिणति पश्चात्ताप प्रादि छोटे रूप में होते हुए भी बड़ी स्वभाव से ही थी। जब ये १० वर्ष के थे तो मध्याह्न में महत्त्वशाली है । स्तुति विद्या, स्वयभूस्तोत्र, सिद्धभक्ति, इमशान भूमि में जाकर ध्यान लगाते थे। उन दिनो समाधितंत्र प्रादि अनेको प्रथों का सरल अनुवाद करके संस्कृत का विशेष प्रचार नहीं था। ये स्वय के बुद्धि-बा मल्पज्ञानियो को धर्म का प्रकाश दिया। से संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान हो गए। इन्होन देवकर ये पूज्य प्राचार्य रामन्तभद्र के परम भक्त थे। इन्हें ही जि. सहारनपुर में मुख्तारगीरी की प्रैक्टिम शुरू करती। माना गुरु मानकर, समस्त कार्यों के करने से पहले यही पर प्रसिद्ध समाज-सेवी श्री मूरजभान वकील एवं आचार्य श्री का स्मरण-वन्दन करते थे। इनके प्रति अपार श्री ज्योतिप्रसाद जी, सम्पादक 'प्रदीप' भी रहा थे। तीनो भक्ति व श्रद्धा थी। स्वामी समन्तभद्र' नाम का ग्रंथ भी में घनिष्ठ मित्रता थी और थी सा1ि समाज संवा लिखा है, जिसमे स्वामी जी के जीवन चरित्र व उनके की सच्ची लगन । घंटो तक इसी पर तीना का विचार- अनुपम धर्म, धर्मप्रचार, चमत्कार प्रादि का विशद वर्णन विमर्श चलता रहता। इधर गावी जी का सत्याग्रह- है। कदम २ पर वे समन्तभद्र जी का स्मरण करते थे। आन्दोलन भी शुरू हो रहा था। फलस्वरूप सन् १९१४ उनकी कृतियों पर गवेषणापूर्ण कई लेख लिखे हैं। मे ला० सूरजभान जी व मुख्तार साहब ने वकालत और जैनियों में जो दस्सा, बीसा, प्रोसवाल, परवार मुख्तारगीरी करना छोड़ दिया और प्राण-पण से समाज ग्रादि भेद चल रहे थे उन सबको एक करने की उनमें मे फैली अबत्रद्धा, कुरीतियो आदि का उन्मूलन करन म प्रबल भावना थी। वे निर्भीकता से यथार्थ बात कहने जुट गए। हस्तिनापुर क्षेत्र पर दस्सा-वीसा के जार भारी में नहीं हिचकते थे, भले ही वह कितना ही विद्वान या झगड़ा होने पर भी ये पीछे नही हटे। उसे निबटाकर धनवान, प्रतिष्ठावान हो। ही छोड़ा । समय २ पर मासिक पत्री व साप्ताहिक पत्रों कानजी स्वामी, स्वामी सत्यभक्त, आदि के कुछ मे निरन्तर समाज-सुधारक लेख निकलते थे। स्वय का कथनों का इन्होंने डटकर विरोध किया। साहित्य सेवी 'जैन हितैषी' पत्र निकालकर समाज का बड़ा उपकार श्री नाथराम प्रेमी जी से इनकी घनिष्ट मित्रता थी। ये किया। इनके दो लड़किया-सन्मति और विद्यावती-हुई भी कई बार बम्बई गए और वे भी इनके पास पाए थे। जिनमे सन्मति वेवल आठ वर्ष की भायु में ही काल- साहित्य- निर्माण मे परस्पर परामर्श होते रहते थे। प्रायः कवलित हो गई । सन् १९१८ में इनकी धर्मपत्नी का सभी लेखक इनको अपने लेख दिवाकर इनकी सम्मति लेते देहान्त हो गया। उस समय छोटी पुत्री विद्यावती केवल थे, क्योंकि ये अपने समय महान दिग्गज विद्वान थे । सन् तीन मास की थी। उसका पालन-पोषण घर पर धाय १६ में उन्होंने सरसावा मे ही वीर सेवा मंदिर संस्था रखकर हमारे पास ही हुआ । दुर्भाग्यवश तीन साल की स्थापित की, जिसका उद्देश्य सत्साहित्य की खोज-शोध
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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