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________________ . सरसावा के सन्त तुम्हें शत-शत बन्धन . कर सका और फलस्वरूप उन्हें वीर सेवा मंदिर, दिल्ली हए, जिसकी वे पिछले कई दिनों से तलाश में थे। वे उस छोड़कर अपने भतीजे श्री श्रीचंद के पास एटा जाकर पंसारी से सारा का सारा बस्ता खरीद लाये और घर रहना पड़ा और वहीं उनके प्राण विसर्जित हुए। जिस लाकर जब उन्होंने उनकी छटनी की तो उसमें उन्हें बड़ी संस्था के जन्म, निर्माण एवं चरम उत्थान में मुख्तार सा० महत्वपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई। ने अपना तन-मन-धन सभी कुछ लगाया और अपनी मन्तिम खून की बिंदु भी मर्पित की, उससे उन्हें अंतिम मुख्तार सा० पंसे के विषय में बड़े बारीक थे तथा दिनों में मात्मसंतोष न मिल सका, भले ही प्राज लोग हिसाब-किताब में बड़े साफ थे। मैं उनके साथ ही भोजन उन्हें श्रद्धा से स्मरण करते हों। करता था। किसी भी माह भोजन खर्च को एकमुस्त पूरी रकम नहीं देनी पड़ी, अपितु हर मास रुपये माने वीर सेवा मंदिर जब तक सरसावे में रहा, तब तक पाइयों में भोजन खर्च पाता था, जिसे काटकर वे मेरा उसकी संपूर्ण साहित्य-जगत में बड़ी प्रतिष्ठा रही और वेतन दिया करते थे। मुख्तार सा० स्वयं कठोर परिश्रम वहां साहित्यिक शोध-खोज का काम भी पर्याप्त एवं किया करते थे और दूसरों से भी उतने ही कठोर परिश्रम सुचारू रूप से सम्पन्न होता रहता था, पर जब से यह की अपेक्षा रखा करते थे । यही कारण था कि दो एक संस्था दिल्ली में प्राई तब से इसका क्रमशः ह्रास होता विद्वानों को छोड़कर कोई भी विद्वान वीर सेवा मंदिर में चला गया और यह राजनीति का अखाड़ा बनकर परस्पर स्थायी रूप से नहीं टिक सका। वैसे वीर सेवा मदिर में मनोमालिन्य पौर द्वेष एव कटुता का केन्द्र बनती चली अनेकों विद्वान और कार्यकर्ता रहे, पर श्रम बाहुल्य एवं गई और सारी प्रगति अवरुद्ध हो गई, जिससे मुख्तार पैसे को बारीकी के कारण लोग वहा लम्बे समय तक सा० बहुत ही खिन्न और मन ही मन दुखी रहते थे। कार्य न कर सके । वस्तुतः सरसावा के संत बा० जुगल अपनी मन्तव्य॑था किसे सुनाते । वीर सेवा मंदिर जैसा किशोर जी मस्तार ने जैन साहित्यिक शोष-जगत में जो पुस्तकालय एवं सर्वश्रेष्ठ ग्रथों का भंडार जैन जगत मे कीर्तिमान और प्रतिष्ठा स्थापित की उससे भावी पीढ़ी तो शायद ही कहीं मिले। जो भी उच्च कोटि का ग्रंथ युग-युगों तक कृतज्ञता अनुभव करेगी मोर उनके प्रति कहीं भी प्रकाशित होता था, मुख्तार सा. उसे अपने श्रद्धा से नतमस्तक रहेगी। पता चला है कि वीर सेवा पुस्तकालय में अवश्य ही मंगा लिया करते थे। अनेकों मदिर से बहुत से बहुमूल्य पलभ्य ग्रंथ यत्र-तत्र चले गये श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएं तो भनेकान्त के प्रत्यावर्तन में एकत्रित हैं जो मब उपलब्ध भी नहीं हो सकते हैं। वीर प्रभु से हुमा ही करती थी। प्रार्थना है कि वीर सेवा मंदिर पुनः प्रगति और उन्नति के पथ पर अग्रसर हो, जिससे स्वर्गस्थ मुख्तार सा. की मुख्तार सा० पयूषण पर्व, महावीर जयंती मादि के मात्मा को संतोष और शांति लाभ हो सके। उनके रिक्त अवसरों पर जब कभी बाहर जाते थे तो प्राचीन पांड स्थान को भरने वाला समाज में प्राज कोई भी विद्वान लिपियों, गुटकों मादि की तलाश अवश्य ही किया करते दिखाई नहीं देता है। 000 थे। एक बार पयूषण पर्व में वे कानपुर गये हुए थे। अचानक उन्हें किसी पंसारी की दुकान में कुछ हस्त श्रुत कुटीर, लिखित पत्र दिख गए, जिनसे वह सामान की पुड़ियां ६८, कुन्तीमार्ग, बना बनाकर बेचा करता था, मुख्तार सा० ने उन पत्रों विश्वासनगर, शाहदरा, को उलटा-पलटा तो वे उन्हें किसी जैन ग्रंथ के प्रतीत दिल्ली-३२
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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