SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मामरतिकरणकारतरवासून त्या भाष्यकता से भिन्न कालद्रव्य का उल्लेख संभव व आवश्यक था, किन्तु यहां प्रशमरतिकार निर्विवाद रूप से पद्धन्म इष्ट हैकालद्रव्य का वर्णन नहीं है । जीवद्रव्य का वर्णन पहले के धर्माधर्माकाशानि पुद्गलाः काल एव बाजीवाः । अध्यायों में हो चुका। पांचवे काल व्यतिरिक्त चार पुद्गलवर्णमस्पं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः ।। प्रजीव द्रव्यों का वर्णन कर चुकने के पश्चात् सूत्रकार द्रव्य का सामान्य लक्षण करते हैं। गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। जीवाजीवा द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम् । इसके उपरान्त वे कालद्रव्य का उल्लेख करते हैं । यदि वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥" सूत्रकार काल को भी पथक द्रव्य मानते, तो अवश्य उसका इस प्रकार द्रव्यों के विषय में सैद्धान्तिक मतभेद है। उल्लेख भी अजीवद्रव्यों की गणना के साथ अर्थात २. जीव के भाष:'प्रजीवकाया धर्माधर्मकाशपुदगल के तुरन्त बाद 'द्रव्याणि' तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पांच भाव माने गये हैं। सूत्र के पहले करते अथवा जीवाश्च के साथ प्रति उसके वही भाव भाष्यकार को अभीष्ट हैं। तुरन्त बाद करते । इतना नही तो कम से कम द्रव्य का प्रौपशमिकक्षायिको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्वक्त्वमीसामान्य लक्षण करने के पूर्व अवश्य करते । दयिकपारणामिको च । अाकाशदेकद्रव्याणि । निष्क्रियाणि च ।' इन दो सूत्रों प्रशमरतिप्रकरण कार ने छह भाव माने हैं। द्वारा धर्म, अधर्म और प्राकाश द्रव्यो को एक-एक तथा साग्निरातिकभाव का भी परिग्रहण किया है :निष्क्रिय कहा है। कालद्रव्य भी निष्क्रिय है, पर उसकी भावा भवन्ति जीवस्यौदायकः पारणामिकश्चैव । निष्क्रियता का सूत्री मे कहीं सकेत नही है। द्रव्यो के पौपशामकः अयोस्थ' क्षयोपशमणश्च पञ्चंते ।। प्रदेशो की सख्या' का विचार करते समय 'नाणो." अण त चकविंशतिवितिनवाष्टादश विधाश्च विज्ञयाः । को अप्रदेशी कहा है । काल भी अप्रदेशी है, परन्तु उसका षष्ठश्च सान्निपतिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः ॥" उल्लेख नहीं है । कालद्रव्य की यह उपेक्षा सिद्ध करती है ३ ऊध्र्वलोक :कि वे काल को स्वतन्त्र द्रव्य नही मानते । प्रशमरतिप्रकरण कार ने अर्जलीक को १५ प्रकार भाष्यकार ने तो सर्वत्र द्रव्य को पाच प्रकार का ही का कहा है। ये १५ भेद कौन से है, इनका विवरण नही है। कहा है। एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च यश्च द्रव्याणि देव चार प्रकार के है. इनमे भवनवाप्ती, व्यन्तर और च भवतीति ।' आकाशाद् धर्मादीन्येन द्रव्याण्येव ज्योतिष् मध्यलोक मे रहते है। वैमानिक ऊर्ध्वलोक मे भवन्ति । पुद्गलबीजावास्त्वनेकद्रव्याणि ।' रहते है। वे दो प्रकार के है: कोरपन्न और कलातीत । धर्म से प्राकाश त धर्म, मधर्म मोर माकाश एक कल्पोपपन्न १२ प्रकार के है। कल्पातीत मे नौ ग्रंवेयक, द्रब्य है। पुद्गल और जीव भनेक द्रव्य हैं। यहां भी (दिगम्बर परम्परानुसार नौ अनुदिश भी) तथा ५ अनुत्तर उन्होने काल द्रव्य का उल्लेख नहीं किया है। विमानवासी देव है। इनके अतिरिक्त, सिद्धशिला भी एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति .. न हि कदाचित् ऊर्ध्वलोक में है, जिसमें सिद्धों का निवास है । इस प्रकार पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति ।' १२ कल्पों के बारह, ग्रेवेयको का एक, अनुत्तर विमानों कालश्चेत्येके का भाष्य है-एके त्वाचार्या व्याचक्षते का एक तथा ईषत्प्रारभार या सिद्धशिला का एक भेद कालोऽपि द्रव्यमिति।" मिलाकर १५ भेद होते है। १. वही ५/३७ या ३८। २. वही ५/३६ । १०.५/५ का भाष्य । ३. बही ५/१। ४. तत्तर्थसूत्र ५/६-७ । ११.५/६ का भाष्य । ५. वही ५/८, ६, १०,११ । १२. ५/३८ का भाष्य । ६. वही ५/११। १३. प्रशमरति प्रकरण, कारिका २०७ व २१० । ७. सभाष्य तत्त्वार्थसूत्र, पृ. २४७ । १४. तत्वार्थसूत्र २/१ प्रशमरतिप्रकरण १६६ व १६७ ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy