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________________ ७२, बर्व ३०, कि. ३४ अनेकांत टीकाकार ने १२ कल्पों के १. भेद किये हैं क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के कर्ता व प्रशमरति के कर्ता एक मनन्त-प्राणत तथा पारण-प्रच्युत इन युगलों का एक-एक नहीं हैं। इन्द्र होने से एक एक भेद है। नौ अवेयकों के प्रघो, मध्य तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार ने अपने सम्पूर्ण परिचय-परक तथा उपरितन के भेदानुसार तीन भेद, पाँच महाविमानों प्रशस्ति दी है, परन्तु प्रशमरतिकार ने अपना नामोल्लेख का एक भेद तथा ईषत्प्राग्भार का एक भेद मिलाकर कुल भी नहीं किया है। इससे दोनों का रुचि-भेद प्रकट होता १५ भेद होते हैं। इस प्रकार, इन दोन प्रकार की गण- है। नामों से ऊवलोक १५ प्रकार का होता है। इन ग्रन्थों का जो पारस्परिक भावगत साम्य है, तत्त्वार्थभाष्यकार तो ज्योतिष्क देवों के एक मेद उसका कारण तत्त्वज्ञान का एक ही स्रोत से उद्भूत होना प्रकीर्णक तारामों की स्थिति ऊर्ध्वलोक में मानते है। है। इसी कारण पारिभाषिक शब्दों में समानता है। सूर्याश्चन्द्र मसो ग्रहा नक्षत्राणि च तियंग्लोके, शेषास्तू- शब्दगत साम्य इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि तत्त्वार्थध्वंलोके ज्योतिष्का भवन्ति ।' सूत्र व भाष्य प्रशमरतिकार के समक्ष विद्यमान थे और वे इससे स्पष्ट है कि भाष्यकार उक्त १५ भेदो के जिन पूर्व कवियो द्वारा रचित प्रशमजननशास्त्र पद्धतियों अतिरिक्त ऊर्ध्वलोक का एक भेद पोर मान रहे है, जो का उल्लेख करते है मभाष्य-तत्त्वार्थ सूत्र उनमें से एक हैं। कि प्रकीर्णक तागों का है, जिसका समावेश उक्त १५ । प्रशमरतिप्रकरणकार स्वय कहत है कि जिन बचनरूप भेदो मे सभव नही है। समुद्र के पार को प्राप्त हुए महामति कविवरो ने पहले ४. संयम के भंवों में अन्तर : .. वैराग्य को उत्पन्न करने वाले अनेक शास्त्र रचे है । उनसे यपि प्रशमरति प्रकरण तथा तत्त्वार्थ भाष्य दोनो में निकले हुए श्रुतवचनरूप कुछ कण द्वादशाग के अर्थ के सयम के १. भेद प्रदर्शित किये गये है, सख्या में समानता अनुसार है । परम्परा से वे बहुत थोड़े रह गये है, परन्तु होने पर नाम अलग अलग है। मैंने उन्हे रथ के समान एकत्रित किया है। श्रृतवचनरूप प्रशमरतिप्रकरण में पांच प्रास्रवद्वारों से विरति, घान्य के कणों में मेरी जो भक्ति है, उस भक्ति के सामर्थ्य पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विलय तथा से मुझे जो प्रविमल, प्रल्प बद्धि प्राप्त हई है. अपनी उसी तीन दण्ड से उपरति १७ प्रकार का संयम माना गया है। बुद्धि के द्वारा वैराग्य के प्रेमवश मैंने वैराग्य-मार्ग की पञ्चासवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः। पगडंडीरूप यह रचना की है।' दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥' इन कारिकामों से स्पट' है कि उक्त प्रकरण की रचना तत्त्वार्थभाव्य मे ये भेद इस प्रकार है : जिन विभिन्न विशिष्ट ग्रन्थों को लक्ष्य में रखकर उनका योगनिग्रहः सयमः । ससप्तदशविधः । तद्यथा पृथिवी. सार ग्रहण कर की गई है, उनमे से एक तत्त्वार्थसूत्र व कायिकस यमः प्रकायिकसंयमः, तेजस्कायिकसंयमः, वायु- उसका भाष्य भी है। शब्दसाम्य का यही कारण है। कायिकसयमः, वनस्पतिकायिकसंयमः, द्वीन्द्रियसंयमः, त्री- प्रस्तु, इतना निश्चित है कि प्रशमरतिप्रकरण अन्यन्द्रियसंयमः, चतुरिन्द्रियसंयमः, पञ्चेन्द्रियसंयमः, प्रेक्ष्य- कर्तृक है क्योंकि एक ही व्यक्ति दो ग्रन्थों में दो भिन्न संयमः, उपेक्ष्यसंयमः, अपहृत्यसंयमः, प्रभृज्यसंयमः, काय- मतों का प्रतिपादन नहीं कर सकता। प्राचीन (सिद्धसेनसयमः, वाक्सयमः, मनः संयमः, उपकरणसयमः इति हरिभद्र मादि) तथा नवीन विद्वानों में दोनों के एकसयमो धर्मः। कर्तृत्व की जो भ्रान्ति है, उसका कारण उक्त शब्द साम्य तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के साथ प्रशमरतिप्रकरण का ही है। उक्त साम्य-वैषम्य इस बात को स्पष्ट करता है कि प्राजाद चौक, सदर, नागपूर (महाराष्ट्र) १. तत्वार्थसूत्र, ४/१४ का भाष्य । ३. तत्वार्थसूत्र ६/६ का भाष्य । २. प्रशमरति १७२। ४. प्रशमरतिप्रकरण, कारिका ५.७ ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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