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________________ क्या रूपकमाला' नामक रचनाए अलंकार-शास्त्र सम्बन्धी है? (पृष्ठ ५६ का शेषांश) होज्यो नारि निराशमय, परमानंद उल्लास । दिया गया है। प्रतः मलकारशास्त्र से इस रचना का कोई भक्ति-भाव मझ मन भमर ने तूम पय-कमलि निवास ॥२६ संबन्ध ही नहीं है। छोटी-सी रचना है, इसलिए मूलरूप संवत पनर छयासिऐ, कोनी रूपकमाल । में भागे दी जा रही है। यह रचना खरतरगच्छ के मा० जिनसमुद्रसूरि के समय मे रची गई, प्रतः इसका रचनाकाल उत्तम ते कंठि घरै जसु मन सील रसाल ॥३०प्रा० सं० १५३० से सं० १५५५ के बीच का है। प्रा० सागर- जिस तीसरी रूपकमाला' का उल्लेख ५० प्रम्बलाल चन्द्र सूरि के शिष्य वाचनाचार्य रत्नकोति, उनके शिष्य शाह ने किया है, उसके लिए उन्होंने कोई उल्लेख नहीं समयभक्त के शिष्य पुण्यनन्दि थे। इस हिन्दी भाषा किया कि वह कहाँ प्राप्त है। मुझे इसकी कोई सूचना व की ३२ पद्यों वाली रचना पर मबसे पहले सं० १५८२ मे 'बालावबोध' रलरगोपाध्याय ने लिखा था। इसकी प्रशस्ति प्रति नही मिली है, पर मेरा ख्याल है कि वह भी अलंकार इस प्रकार है विषयक नहीं होगी। "पुण्य नापाध्यायेन शोलरूपकमालिका, प्रद हम पुण्यनदि की रूपकमाला का मूल पाठ यही विहिता भव्य जीवानां चित्त शुद्धविधायिनी। नेत्र' सिद्धि ज्ञान' चन्द्रे' वर्षे नभसि मासिना पुण्यनंदिरचित रूपकमाला श्री रत्नरगोपाध्यायः कृतावबोधिनी ॥" पादि जिणेसर प्रादिसउ । सरसति दसण दाखि । इति रूपकमाला वालावबोधः । शील तणा गुण गाइस्यं । तिहुयण सामंणि साखि ॥१॥ हमारे अभय जैन ग्रंथालय मे भी इस बालावबोध प्रातमराम शील घार । शीलइ परमाणद भा. की पंद्रह पोर ग्यारह पत्रों की दो प्रतियां है । मूल रचना इम प्रभणइ श्री पुन्यनंदि ॥२॥ प्रा० पांचली की अन्य चार प्रतियां भी हमारे संग्रह मे हैं। इनमें से सोह शील लाजइ लहइ । भूषण भारिम अंग । एक प्रति मे कुछ टिप्पण भी लिखे हुए है। कविवर समय- प्रसाधु वादिनी संस्कृता, किम गिरी गाह दुरंग ॥२॥ मा. सुन्दर ने सं० १६६३ में इस पर संस्कृत टीका लिखी है। मूस मंजारि मेला वदउ, किहा कुसल तणां ताह । उसकी भी प्रतिलिपि हमारे संग्रह में है। धन जिणि दिणि दीसइ नही, उत्तराध्ययन की बाह ।।शामा. इसके बाद दूसरी 'रूपकमाला' नामक रचना पाव किस ऊपरि धोवइ घसइ, मूडी मांडिम अंग। चन्द्रसूरि की बतलाई गई है। वह भी हिन्दी भाषा के मंडण माल प्रकमिया, दसवीकालिक कुरंग ॥४॥प्रा० ३० पद्यो की रचना है, जो सं० १५८६ में राणकपुर में धीसयणा सण फसणे, जह जयणा गुण गोढ़ । प्राबश्यक इम माइखइ, मठ कहीयउ कोढ ॥५॥प्रा० रची गई है । इसके प्रादि और अन्त के चार पद्य 'जैन कहिउँ कपिलइ केवली, राम राखि सी एह । गुर्जर कविश्नो,भाग १, पृष्ठ १४७ में प्रकाशित है। उन्हे पुरुष पलोभ पलोटियइ, दाखि म दाखसी एह ॥६॥मा. देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह रचना भो मलकार से लग लग जिन रखितउ खूतउ सवल जल पूरि। विषयक नही है। मादि और अन्त के पद्य नीचे दिये जा रयण दीव देवी दल्यऊ रिर सार सम समूरि ॥७॥ मा. वाषिणे वीर वेल घडो, भामणि भरवण भूल । प्रादि कंटइ कोथी कामिणो, प्रवचन पर क उ मूल ॥ामा० प्रापिई पाप सम्भालिये रे, जिबड़ा विचारि । धरि पूपलि का खाद की, अनइ पूपलिका खाद । प्राज्ञा जिननी पालिए, शिवमुखनी दातरी। वरजि वास मणि मोपिली, दुतीय पढम पद जाद प्रा० प्रात्मासार सीख सुणो! वय श्रुत जतन प्रमाणियइ, बुदि बलं बहंकाई । मन्त खीणा बदका केवली, ललना लिंग लुकाइ ॥१०॥मा. राणिकपुर रलियामणो, मादीश्वर जिनराउ । जे गुरु राग उदीरगा, जे जइ भनव वाडि । पापर्व चन्द्र प्रभु करि एह पसाउ ।। २८ प्रा०॥ बयरी वाहर थानक, ते पापो हे पाडइ छाडि॥११॥ग्रा.
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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