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महावीर ने कहा था
॥ श्री रमाकान्त जैन, बी. ए., सा. र., त. को., लखनऊ
प्रब से ढाई तहस्र वर्ष पूर्व एक भारतीय सन्त ने द्यूत (जुप्रा), मद्य (शराब) और मांस का सेवन, मानव को सम्बोचा था, 'सांपेक्खए अप्पगमप्पएण' स्वयं वेश्या गमन, शिकार, चोरी और परयार (पर स्त्री अथवा को जानो, स्वयं को पहचानो । उसका कहना था, पर पुरुष) का सेवन ये पाप कर्म दुर्गति प्राप्त होने के 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' प्रात्मा स्वयं हेतुभूत अर्थात् कारण है। इसलिए उन्होंने लोगों को इन अपने दुःख और सुख का कर्ता और भोक्ता है। वह सम- पाप कर्मों से बचने तथा अपने चरित्र को बनाये रखने पर झता था, 'कतारमेव अणुजाई कम्म' कर्म सदैव करने बल दिया। वह शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र को बाले के पीछे-पीछे चलते है और यह भी कि 'जहां कडं चरित्रवान होने का लक्षण नहीं मानते थे। तभी तो कम्मतहासि भोए' जमा कर्म किया जाता है उसका वैसा उन्होंने कहाही फल भोगना होता है।
'जो पुण चरित्तहीणो कि तस्स सुदेण बहुएण ।' वर्णाश्रम व्यवस्था की जंजीरों से जकड़े यूग और
जो व्यक्ति चरित्रहीन है उसके बहुत से शास्त्रों का समाज में एक क्षत्रिय सामन्त के यहां उत्पन्न सौर सुख.
ज्ञान प्राप्त कर लेने से भी क्या लाभ है ? वह तो कहते समृद्धि में पला.पुमा वह विचारक जन्मतः वर्ण व्यवस्था मानने को तैयार नहीं था। उसका तो कहना था 'कम्मणा 'दया समो न य धम्मो, अन्नदानसमं नस्थि उत्तमंदाणं । वंभणो होइ, कम्मणा होइ खत्तिमी । वइमो कम्मणा होइ,
सच्चसमा न य कित्ती, सीलसमो नत्थि सिगारो।।' सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥' कर्म (अपने पाचरण अथवा दया समान धर्म नही है, अन्न दान से उत्तम दान कार्यो) से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, नही है । सत्य के समान कीर्ति नहीं है और शील (चरित्र) कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है (जन्म से के समान कोई शृंगार नही है। अपनी लगभग साढ़े नही) ।
बारह वर्ष की साधना अवधि में उस साधक ने विभिन्न वह सिर मुडा लेने मात्र से किसी को ब्राह्मण, वन मे प्रयोगों द्वारा यह अच्छी तरह समझ लिया थारहने मात्र से किसी को मुनि और कुश-चीवर धारण
'घम्मु ण पढियई होइ, धम्मु ण पोत्था-पिच्छियई। करने मात्र से किसी को तापसी मानने को तैयार नहीं धम्मु ण मढ़िय पएसि, धम्मु ण मत्था-लुचियइ ॥' थे। उनका विश्वास था
बहुत पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पोथियों और समयाए समणो होइ बंभचरेण बंभणो।
पिच्छी को रख लेने से भी धर्म नही होता, मठ में रहने नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो॥' से भी धर्म नहीं होता मोर सिर का केश लौच करने से
व्यक्ति समता अर्थात् सबके प्रति समान भाव रखने भी धर्म नही होता । अपितुसे श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से विणमो धम्मस्स मूलं । धम्मो वया विसुद्धो। अहिंसा मुनि होता है और तप करने से तापस होता है। मोर हि लक्खणो धम्मो, जीवाणं रक्खणो धम्मो।' यह कि
अर्थात् बिनय (मान रहित होना) धर्म का मूल है । 'जूयं-मज्ज-मसं-वेसा, पारद्धि-चोर-परयारं। धर्म दया से विशुद्ध होता है। धर्म का लक्षण महिंसा है, दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभदाणि पावाणि ।।' मतः जीवों की रक्षा करना धर्म है । तथा यह कि