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________________ मुख्तारश्री और समीचीन धर्म शास्त्र 0 श्री सी. एत. सिंघई 'पुरन्दर' स्वतन्त्र भारत ने सारनाथ स्थित प्रशोक स्तम्भ के मीमांसा की ताइपत्रीय प्रति में राजकुमार प्रकट किया शीर्षस्थ सिंहों को राज्य चिह्न के रूप में अपनाकर सम्राट गयाप्रशोक द्वारा धर्म विजप को युद्धविजय से श्रेष्ठ प्रदर्शित 'तिमी फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिप सुनोः, करने वाली नीति का महत्व प्रतिपादित किया। इस श्रीस्वामीसमन्तभनमुनेः कृती भाप्तमीमांसायाम् ।' देश में दिग्विजयी सम्राों के स्वर्ण-मकुट धर्मविजयी संतों उन्हें धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र और साहित्यशास्त्र के के चरणों में झुकते रहे हैं लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व ऐसी साथ ज्योतिषशास्त्र, मायुर्वेद, मन्त्र, सन्त्रादि विषयों में धर्मविजय फणिमण्डलांतर्गत उरगपुर (पांड्य प्रदेश की भी निपुणता प्राप्त थी, जैसा कि निम्नांकित मात्म-परिचय राजधानी) के संन्यस्त राजपुत्र ने की थी। करहाटक की से प्रकट है :राजसभा में उसने निम्नाकित श्लोक के रूप मे ग्रात्मपरि "प्राचार्योह, कविरहमहं, वाविराट्, पंडितोह, चयादि दिया था, जो श्रवण वेल्गोल के शिलालेख देवशोह, भिषगहमह, मान्त्रिकस्तांत्रिकोहं । (शिला लेख क्र. ५४) मे उत्कीर्ण है। राजन्नस्यां जलषिवलयामेखलायाभिलायाम, "वं पाटलिपुत्रमध्य नगरे भेरीमया ताडिता, प्राज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिखसारस्वतोहम् ॥" पश्चान्मालव सिंघु-ठक्क-विषये कांचीपुरे बंदिश । उक्त पद्य में प्राचार्य प्रवर के १० विशेषणों का प्राप्तोऽपि हं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट सकटं, उल्लेख हुआ है :वावार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥" (१) प्राचार्य, (२) कवि, (३) वादिराट्, (४) इस गर्वोक्ति से प्रकट होता है कि न केवल दक्षिण पडित, (५) देवज्ञ (ज्योतिषी), (६) भिषक, (७) भारत की कांची नगरी के वादथियों को स्वामी समन्त- यांत्रिक, (८) तात्रिक, (६) प्राज्ञासिद्ध, (१०) सिद्ध भद्र ने पराजित किया था, अपितु उत्तर भारत स्थित सारस्वत । पाटलिपुत्र (पटना), मालवा, सिन्धु, ठक्क (पजाब का एक स्वामी समन्तभद्र की तुलना में निर्भीक एवं प्रभावक भाग), विदिशा (माजकल मध्यप्रदेश में है) प्रादि में भी अन्य प्राचार्य नही ठहरते। इसी से स्व०प० जुगलकिशोर विजयपताका फहराई थी। उक्त श्लोक तो विख्यात है। उन पर मग्ध थे। मुख्तार साहब ने समीचीन धर्मशास्त्र की प्रस्तावना मे श्री समन्तभद्र की दो अन्य गर्वोक्तियां भी अकित की है जिनका उन्होंने २१ अप्रेल, १६२६ को दिल्ली में समन्तभद्रामधिक प्रचार नहीं हो सका है - श्रम की स्थापना की थी। प्रागे चलकर यही वीर मेवा मन्दिर कहलाया। उन्होंने प्राचार्यश्री के अनेक ग्रन्थों पर "कांच्या नग्नाटकोऽहं. मलमलिनतनुलुंविशे पडिपिडा, भाष्य लिखे और उन्हें सटीक प्रकाशित कराया। उनकी पुण्ड्रोई शाकभक्षी, बशपुरनगरे मिष्टभोजीपरिवाट । अन्तिम इच्छा एक मासिक पत्र पौर निकालने की थी, वाराणस्थामभूवं शशधरघवलः, पांडुरागस्तपस्वी, जिसका नाम भी समन्तभद्र' प्रस्तावित किया था। राजन् यस्याऽस्तिशक्तिः , सबवति पुरतो जननियवावी।" प्रस्तावित मासिक-पत्र की पावश्यकता की पूति, वीर सेवा कांची के इस नग्नाटक (विगम्बर साधु) को प्राप्त मन्दिर से प्रकाशित अनेकान्त ही करेगा, ऐसी माशा है।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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