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________________ मुख्तारी और समीचीन धर्मशास्त्र श्री समन्तभद्र के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक ग्रन्थकर्ता के अन्यान्य ग्रन्थ कठिन भाषा में है भौर लोकप्रियता उनके उपासकाचार को प्राप्त होने का कारण, विषय भी दुरुह है। प्रतः कुछ विद्वानों को संदेह हुमा इस ग्रन्थ की सरल संस्कृत भाषा और अधिकतर अनुष्टप कि देवागम, युक्त्यनुशासन जैसे ग्रन्लों के कर्ता उभट छन्दों में गृहस्थाचार का विशद विवेचन है। 'गागर मे विद्वान प्रसिद्ध प्राचार्य समन्तभद्र ने यह ग्रन्थ नहीं लिखा। सागर' भर दिया है। विषयवस्तु पोर शैली दोनों ही इसके कर्ता कोई दूसरे ही समन्तभद्र होंगे। इस संदेह का उत्कृष्ट है। प्रधान कारण है इस ग्रन्थ में उस तर्कपद्धति का प्रभाव सर्वप्रथम इसको संस्कृत टीका श्री प्रभा चन्द्राचार्य ने जो प्रन्य ग्रन्थों में प्राप्त है। स्व. मुख्तार सा० ने इसे लिखी। कन्नड़, मराठी प्रादि भाषामों में अनेक टोकायें सप्रमाण श्री समन्तभद्राचार्य प्रणीत सिद्ध किया है। इसी लिखी गई। हिन्दी मे सर्वप्रथम विस्तत भाष्य पंडित सम्बन्ध में डा. हीरालाल जैन ने १९४४ ई० में एक सदासुख कासलीवाल (जयपुर निवासी) ने लिखा जो निबन्ध लिखा था-'जैन इतिहास का एक विलुप्त ढूंढारी गद्य में है। जयपुर के प्रासपास का क्षेत्र हुँदार प्रध्याय । इसका विस्तृत और सप्रामाण उत्तर मुख्तार कहलाता है । यह भाष्य वि० सं० १९२० मे लिखा गया। सा० ने अनेकान्त द्वारा १९४८ में दिया था, जिसे विस्तारमुख्तार सा० ने श्रावकाचार की विस्तृत व्याख्या २०० पूर्वक इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में दिया है। प्रस्तावना में पृष्ठों में की है और ११६ पृष्ठों मे तो केवल प्रस्तावना ६ अन्य समन्तभद्रों का उल्लेख करने के पश्चात् यह ही लिखी, जिसे माघ सुदी ५ स. २०११ वि० को पूर्ण निष्कर्ष निकाला है कि ये अन्य उन्ही समन्तभद्र स्वामी किया। जीवन के बहमूल्य १२ वर्ष इसमें लगाये। यह की रचनाएँ हैं जिनकी कृतियाँ प्राप्तमीमासादि है। प्रन्थ वीर सेवामन्दिर से प्रल १९५५ ई० में प्रकाशित वास्तव में प्राचार्यश्री ने ये ग्रन्थ लिखकर बालकों हुमा है। एवं बालचुद्धि गृहस्थों पर प्रत्यन्त अनुग्रह किया है। प्रत्येक परीक्षालय ने इसे पाठ्यक्रमो मे स्थान दिया है, प्रत्येक स्व० मुख्तार सा० ने ग्रन्य का बहुप्रचलित नाम रत्न- पाठशाला में इसका पठनपाठन होता है, प्रत्येक जिनमन्दिर करड श्रावकाचार न रखकर 'समाचीन धर्मशास्त्र' रखा तथा मशिक्षित गस्थ के गढ़ में यह प्राप्तव्य है। है। प्रन्यकर्ता श्री समन्तभद्र ने ग्रन्थारम्भ मे सकल्प किया है कि इस ग्रन्थ की अनेक बालबोधटीकाएं हिन्दी में हुई देशयामि 'समीचीन धर्म-कर्म-निवहणं । है। सोनगढ से भी हिन्दी टीका सहित यह ग्रन्थ प्रकाशित संसारदु:खतः सत्वान् यो परत्युत्तमे सुखे ॥२॥ हुप्रा है। 'समीचीन धर्मशास्त्र' क प्राक्कथन डा. वासुदेवशरण मुख्तार सा० ने रत्नकरण्ड नाम प्रन्यांत के निम्न अग्रवाल एव (भामुख) डा० मा० ने० उपाध्ये महोदय लिखित इलोक से फलित किया है : से लिखा कर गौरववृद्धि की गई है। समर्पण पत्र थी येन स्वयं बीत कलंक विद्या-ष्टि-क्रिया- रत्नमरंट'-भावं। समन्तभद्रं स्वामी के नाम हैं :नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिविष्टपेषु ॥१४६ स्ववीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुम्यमेव समर्पितम् ।' ग्रन्थकर्ता ने अन्य ग्रन्थों के भी दो-दो नाम गिनाये हैं, जैसे-देवागम का प्रपरनाम प्राप्तमीमांसा, स्तुति ग्रन्थ को ७ सात अध्यायों में विभक्त करना मुख्तार विद्या का प्रपर नाम जिनस्तुतिशतक या जिनशतक, स्व- सा० की सूझबूझ है। यह विभाजन बड़े अच्छे डग से यंभस्तोत्र का अपर नाम समन्तभद्र स्तोत्र, और यह भी किया गया है। लिखा है कि वे सब प्रायः अपने-अपने प्रादि या अन्त के स्व. पं. पन्नालाल बाकलीवाल ने १८९८ ई. में पद्यों की दृष्टि से रखे गये हैं। अन्य के २१ पद्यों के क्षपक होने का संदेह व्यक्त किया
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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