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________________ २४, वर्ष ३०, कि०३-४ था। मराठी भाषा के विद्वान पं० नाना रामचन्द्र नाग ने श्लोक क्र. ५६ में 'परदार-निवृत्ति' की व्याख्यातो केवल १०० श्लोक मान्य करके ५० कम कर दिये। जो स्वदार नही, वह परदार है। कुछ लोग परदार का मखतार सा० को जैन सिद्धान्त भवन, पारा मे ताडपत्रीय अर्थ पर की स्त्री करते हैं। एकमात्र उसी का त्याग करके ऐसी प्रतियां भी प्राप्त हुई हैं जिनमे १६० श्लोक है परन्तु कन्या तथा वेश्या सेवन की छूट रखना संग प्रतीत नहीं उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि वास्तव मे १५० श्लोक होता । होना चाहिए। उन्होंने श्री प्रभाचन्द्राचार्य एवं पं० सदा- इलोक क्र. ७७ में हिसादान की व्याख्या-हिंसा के सुख कासलीवाल के चरणचिन्हो पर चल कर समीचीन : ये उपकरण यदि कोई गृहस्थ इसलिए मांगे देता है कि धर्मशास्त्र मे १५० श्लोक ही रखे ।। उसने भी मावश्यकता के समय उनसे वैसे उपकरणों को श्री समन्तभद्राचार्य का विस्तृत परिचय २५ पृष्ठो में मांग कर लिया है और मागे भी उसके लेने की सम्भावना दिया है जिसे मुख्तार सा० ने 'सक्षिप्त परिचय' कहा है। है तो ऐसी हालत में उसका वह देना निरर्थक नहीं कहा इसका कारण यह है कि उन्होंने भाचार्य प्रवर के सम्बन्ध जा सकता। उस में भी यह कुछ वाधा नही डालता । जहाँ में बहुत शोध की थी, इसलिए इतना लिखने पर भी लगता इन हिंसोपकरणों को देने में कोई प्रयोजन नही है, वही था कि बहुत कम लिखा है। यह व्रत वाधा डालता है। श्री प्रा० ने० उपाध्ये ने भूमिका में लिखा है कि इलोक क्र. ८५ मे वे ही कंदमूल त्याज्य हैं फो प्रासुक 'हिन्दी व्याख्या केवल मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद नहीं है, प्रथया प्रचित्त नही है। प्रासुक कंदमूलादि वे कहे जाते हैं बल्कि जैन न्याय सम्मत विषयो पर कुछ सदृश प्रकरणों जो सूखे होते है, अगम्यादिक मे पके या स्खूब तपे होते है, को श्री समन्तभद्र तथा उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थकारो के ग्रन्थों खटाई तथा लवण से मिले होते है अथवा यंत्रादि से छिन्नसे लेकर गुण-दोष-विवेचिका विचारणा को भी प्रस्तुत भिन्न किये होते है, जैसा कि निम्न प्राचीन प्रसिद्ध गाथा करती है।' से प्रकट है :व्याख्या के क्रम मे कुछ शब्दो की शोधपूर्ण विवेचना "सक्कं पक्कं तत्तं, विल लवणेण मिस्सियं दध्वं । दृष्टव्य है। यथा - लोक क्र. २८ मे 'पाषंडि' का प्रचलित अर्थ घर्त, जं जंतेण य छिण्णं, तं सध्वं फासयं भणियं ॥" टमी या कपटी अमान्य करके पाप का खडन करने वाला नवनीत मे अपनी उत्पत्ति से अंतर्मुहर्त के बाद ही तपस्वी किया है। इसी प्रर्थ मे श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत सम्मूच्छंन जीवों का उत्पाद होता है। अत: इस कालसमयसार की गाथा ऋ० १०८ प्रति प्राचीन साहित्य में मर्यादा के बाहर का नवनीत ही वहाँ त्याज्य कोटि में है, प्रयुक्त होना बताया है। इसके पूर्व का नही। __ श्लो० ऋ० २८ में 'मातगदेहजम्' का अर्थ चाडाल लोक ८६ मे 'अनुपसेव्य' की व्याख्या-स्त्रियो को का काम करने वाला ही नहीं, चाण्डाल के देह से उत्पन्न ऐसे प्रति महीन एव झीने वस्त्र नही पहनना चाहिए अर्थात् जन्म या जाति से चाण्डाल भी किया है। जिनसे उनके गुह्य अंग स्पस्ट दिखाई पड़ते हों। श्लोक क्र. ५८ मैं 'विलोम' की व्याख्या है अल्प श्लोक ऋ. ११६ में द्रव्यपूजा की व्याख्या-वचन मूल्य में मिले हुए द्रव्यो को अन्य राज्य मे बहुमूल्य बनाने तथा काय को अन्य व्यापारों से हटा कर पूज्य के प्रति का प्रयत्न । इससे अपने राज्य की जनता उन द्रव्यों के प्रणामांजलि तथा स्तुति पाठादि के रूप में एकाग्र करना उचित उपयोग से वंचित रह जाती हैं। इसलिए यह एक ही द्रव्यपूजा है । जल, चन्दन, अक्षतादि से पूजा न करते प्रकार का अपहरण है। विलोप में दूसरे प्रकार का अप- हुए भी पूजक माना है। श्री अमितगति प्राचार्य के उपाहरण भी शामिल है जो किसी की सम्पति को नष्ट करके सकाचार से भी द्रव्यपूजा के इसी मथं का समर्थन होता स्तुत किया जाता है।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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