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मुख्तारी और समीचीन धर्मशास्त्र
बचो-विग्रह-संकोचो, द्रव्यपूजा निगद्यते। संयुक्त किरण ११-१२ में प्रकाशित हुआ था। तत्र मानससंकोचो, भावपूजा पुरातनः।" इसी श्लोक में 'गृहतो मुनिवनमित्वा' से मूचित किया
श्लोक क्र. १४७ में 'भक्ष्य' को व्याख्या-भक्ष्य का है कि मुनिजन तब वनवामी थे, चैत्यवासी नहीं थे। श्री मर्थ भिक्षासमूह है। उत्कृष्ट श्रावक अनेक घरों से भिक्षा पं० नाथूराम प्रेमी ने 'वनवासी और चत्यवासी' शीर्षक लेकर मन्त के घर या एक स्थान पर बैठकर खाता है, शोषपूर्ण लेख १९२०ई० में जनहितषी में प्रकाशित कर जिसका समर्थन श्री कुंदकुंदाचार्य के सुत्तपाहुड में पाए हुए इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। 'भिक्खं भमेह पत्तों से होता है (पात्र हाथ में लेकर भिक्षा
उक्त दृष्टांतों से प्रकट होता है कि स्व०६० जुगलके लिए भ्रमण करना)। ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक किशोर का जान तल था और ऐलक भेद श्री समन्तभद्र स्वामी के समय में नहीं थे। नाए' बेजोड़ थीं । वाङ्मयाचार्य की उपाधि से वे विभूषित श्री मस्तार सा. क्षुल्लक पद को पुराना और ऐलक पद किये गये थे । काश! जैन समाज ने कोई यिश्वविद्यालय को पहचादर्ती मानते थे, जैसा कि उनके गवेषणापूर्ण निबंध स्थापित किया होता तो निश्चयरूपेण वे डाक्टरेट की ऐलक पद-कल्पना' स्पष्ट है, जो अनेकान्त, वर्ष १० की मानद उपाधि से विभूषित किये गये होते।
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[पृष्ठ २१ का शेषांश] लिए उनका सर्वस्व दान प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय जाय । अन्त में उनकी जन्म शताब्दी के पुण्य अवसर पर भी है। जैसा कि मैंने अपने 'जैन सन्देश' वाले लेख मैं माननीय मुख्तार साहब को सादर श्रद्धांजलि अर्पित में लिखा था उनकी प्रतिम भावनामों को हमें शीघ्र ही करते हुए मेरे प्रति उनका जो वात्सल्य भाव था उसे मूर्त रूप देना चाहिए । अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हो स्मरण कर गद्गद् होता है। वास्तव में मुख्तार साहब ने सका तो अनेकान्त का 'स्मृति-प्रक' ही निकला। वीर सेवा अपने जीवन मे इतना काम किया कि वे व्यक्ति ही नहीं मन्दिर को एक शोध केन्द्र का रूप दिया जाय । दिल्ली में संस्था बन गये । पुण्य प्रभाव से मुख्तार साहब ने मृत्यु भी ऐसी संस्था उचित व्यवस्था करने पर बहुत उपयोगी हो अच्छी पाई और स्वास्थ्य भी ठीक रहा । लगन थी ही, सकती है। उसके ग्रंथालय कोस मृद्ध बनाया जाय और प्रतः वे काफी कार्य कर सके। लोग अधिकाधिक लाभ उठा सकें, ऐसी सुव्यवस्था की
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ऋषभ वन्दना अग्निमीड़े पुरोहितं यक्षस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम् ।
अग्निः पूर्वभिऋषिभिरी उत्रो नतनैरुत स देवो एह वक्षषि ।। ऋग्वेद १.१.१.२ ऋषभ वन्दना
जन्म-मृत्यु से भरे संसार को अग्र-नेता प्रादि ब्रह्मा की
हवि के प्रदाता, वन्दना के स्वर जगाता हूँ।
दिव्य शक्तिवाँ वे मेरे सानिध्य में लायें, विश्व के जो हैं हितेषी,
प्रात्म वैभव जागृत करके सर्व कार्यों के शुभारम्भ में
मुझे पावन बनाय। जिन्हें प्राह्वान करना है जरूरी,
मैं ऋषभ की वन्दना के स्वर जगाता हूँ। मुक्ति पथ के यात्रियों को जो सदा प्रादर्श,
प्रस्तोता : श्री मिश्रीलाल जैन त्रिरत्नधारी,
एडवोकेट, गुना