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जिन दर्शन
D श्री बाबूलाल जैन, दिल्ली जिनदर्शन का बहुत महत्व है। वास्तव मे जिनदर्शन अपने अच्छे-बुरे का पाप ही मालिक है। कोई ईश्वर क्या है, इसका बिचार करना है । जिनदर्शन का अर्थ मूर्ति ऐसा नही जो उसकी प्रेरणा करता हो, उसको फल देता का मात्र दर्शन करना नही। पहली बात तो यह है कि जो हो, उमका अच्छा-बुरा करता हो, या वह उसके अधीन लोगभगवान को कर्ता-सष्टा मानते है उनके जिन दर्शन हो । लोग ज्यादातर भगवान की भक्ति करते है । वह इसी हो ही नहीं सकता। जैन दर्शन को कुछ लोगो ने अभिप्राय को लेकर करते है कि भगवान प्रसन्न होने से नास्तिक बताया है। कहा गया है कि जैनी लोग भगवान हमें धन-वैभव देगा और नाराज होने से नरक में डाल को कर्ता नहीं मानते इसलिए नास्तिक है। परन्तु धीरे- देगा। इसी भय पोर लोभ के कारण भगवान की सत्ता धीरे ऐसा रूप हुमा कि जैनी लोग भी भगवान को कर्ता- बनी हुई है। जिस रोज यह भय और लोभ हट जाएगा सृष्टा मानने लगे और इसी प्रकार का रूपक चल पड़ा। उस रोज शायद भगवान की सत्ता भी न रहे। समूचे धर्म, फल यह हुमा कि वास्तविक अध्यात्मिक रूप हमारे हाथ समूची पूजा, समूचे पाचरण का आधार एक मात्र नरक से छट गया। जैन दर्शन वह दर्शन है जिसमे कि हरेक का डर और स्वर्ग का लोभ है। व्यक्ति को अपना भाग्य विधाता बताया गया है, वह
- इसलिए सबसे पहलो बात यह है कि भगवान में (पृष्ठ २७ का शेषांश) पासादि सुत्त में है-भ० बुद्ध कहते है कि --१.
कपिना नही होना चाहिए। अगर कोई जिनेन्द्र को कोई मर्ख, जीवो का वध करके आनंदित होता है का मानकर पून रहा है तो वह जिनेन्द्र की मूर्ति पूजते विनोना कोई हुए भी रागी देव का पूज रहा है, क्योंकि उसने अपनी
मान्यता म उसे रागी माना है। एक कपड़े का धागा रखने चोरी करके प्रानंदित होता है ४. कोई पाच भोगों
पर अगर वह जिनन्द्र प्रतिमा नहीं रहती तो कर्तापना से सेवित होकर पानंदिन होता है । ये चार प्राराम
रहन पर वह जिनन्द्र प्रतिमा कैसे रह सकती है ? जिनेन्द्र पसन्दी निकृष्ट है।
को कर्ता मानने वाले ने जिनेन्द्र की स्तुति नही की है, उक्त सभी प्रसंग चातुर्याम से पूर्ण मेल खाते है और
उसकी निन्दा को है। वीतरागी की रागी कहना स्तुति यह मानने को वाध्य करते हैं कि चातुर्याम पार्श्वनाथ के
कैसे हो सकती है ? यह तो निन्दा है। इसलिए सबसे नही अपितु भगवान बुद्ध के हो सकते है जो 'चातुर्यामगंवर
जरूरी बात यह निर्णय करना है कि भगवान मेरा पूछ रूप में कहे गए है। जो भी हो उक्त स्थिति में इसी बात को बल मिलता है कि पार्श्व के पंच महावत थे, चातर्याम नहीं कर सकता । वस्तविक रूप से देखा जावे तो भगवान नही। विद्वान् विचार करें।
जो शुद्ध प्रात्मा है वह तो सिद्ध शिला पर विराजमान है वीर सेवा मन्दिर,
और अपने अनन्त प्रानन्द में मग्न है। अगर वह पर की २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ चिन्ता करने जाय तो उसका अनन्त प्रानन्द नष्ट हो जावे।
सामने वेदी में हमने पाषाण पर उनके स्वरूप को स्थापना
१. 'जहा तक हम जानते है कि पार्श्व और महावीर धर्म के उक्त भेद की चर्चा का दिगम्बर जैन साहित्य में कोई राकेत तक नहीं है।'
.-जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. २७६ (प्रथम सस्करण)