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जिन दर्शन
अपने प्रवलम्बन के लिए कर रखी है। वह भगवान दूसरी बात यह है कि स्तुति कुछ शरीर प्राश्रित की हमारा भला-बुरा कर दे यह सवाल पैदा ही नही होता, जाती है, कुछ बाहरी पदार्थों के प्राश्रित की जाती है, चाहे वह चांदनपुर का महावीर स्वामी हो, चाहे और कुछ आत्म पाश्रित गुणो के आधार की जाती है। यहां कोई हो।
पर सभी बातो को मात्मा की मान लें तो असमान जातीय मानस कार की स्ततिया बड- दो द्रव्यों मे एकत्व-बुद्धि होकर मिथ्यात्व की पुष्टि हो बड़े विद्वानों ने पोर प्राचार्यों ने बनाई है। वे क्या गलत है? जाती है। इसी स्तुति को पढ़ते हुए, करते हुए, यह समझना उसका उत्तर है कि वे स्तुतिया गलत नही है, वे स्तुतिया चाहिए कि यह तो प्रात्मा का गुण है और यह 'पर' के व्यवहार दृष्टि से की गई है। जैसे अगर हम शिखर जी
जी सयोग को लेकर कथन है, वह प्रात्मा का गुण नही है; के पहाड़ पर जावें और रास्ता भूल जावें पोर वहा कोई जसे किमी गजा का कथन करते हुए यह कहा जाता है निशान हो अथवा कोई प्रादमी खडा हो, वह हाथ का यह गुणवान है, दयालु है, न्यायप्रिय है। यह तो उसके इशारा कर रहा हो, उस इशारे को देखकर प्रगर हम रास्ता ।
गुणो का कथन है । परन्तु उसके शहर की सुन्दरता का समझ ले और उस रास्ते से नीचे अपने घर में प्रा जावें,
वर्णन करना, बाग-बगीचो का कथन करना, वह राजा तब हम कहते है कि उस प्रादमी ने हमे घर पहचा दिया
का कथन नही परन्तु उससे साबित यह होता है कि राजा और उस व्यक्ति का उपकार भी मानते है । वस्तुतः वह
कलाप्रिय है। ऐसा ही अर्थ भगवान की स्तुति मे लेना प्रादमी हमको कन्धं पर उठाकर नही लाया है। हम अपने
चाहिए। कही शरीराश्रित कथन है, कही मा-बाप के परों से चलकर पाए है, परन्तु कहते यही है कि उसने
प्राश्रित कथन है, कही समोशरण के आधार कथन है, हमे घर पहुंचा दिया। इसी प्रकार ये हम जब जिनेन्द्र का
ये सब भगवान की आत्मा के गुण नही है। इस प्रकार गुणानुवाद गाते है, उससे हमारे परिणामो मे
स्तुति-पूजा करते हुए ठीक से समझकर करे तो ठीक है। मरलता पाती है, जिससे पाप-प्रकृति का नाश होकर
भगवान की मूर्ति के द्वारा हमे उस मूतिवान को देखना है पुण्य प्रकृति का उदय पाता है। तब हम कहते है कि
जो सिद्धशिला पर विराजमान है और शक्ति रूप में इस हे भगवान, प्रापन हमारा भला कर दिया अथवा अमुक
शरीर में विराजमान है; जैसे चील उडती प्राकाश में है काम कर दिया। वहा पर हमे वस्तु को ठीक से समझ
परन्तु लक्ष्यभेद करती जमीन पर है, इसी प्रकार देखना है कर अर्थ करना चाहिए । व्यवहार में प्रादमी बडा हो
मूर्ति को और लक्ष्यभेद करना है अपने में जहा चैतन्य जाता है परन्तु कहते यही है कि कपड़ा छोटा हो गया।
विराजमान है। इस मूर्तिदर्शन के द्वारा प्रात्मदर्शन करना वहा तो हम उसका अर्थ ठीक समझते है कि कपड़ा छोटा
है। अगर प्रात्मदर्शन न करके मूर्तिदर्शन हो करता रहा नही हुग्रा, पहनने वाला बड़ा हमा है। अगर वहा पर तो कार्य की सिद्धि नही होगी। मीधा अर्थ करके यह समझे कि कपड़ा छोटा हो गया तो हम मन्दिर में मूर्ति पूजने नही पाते, हम तो जिनेन्द्र विपरीतता हो जाएगी। वैसी ही बात यहां पर है - यहा बनने को प्राते हैं। भीख मांगन को नही पाते। मूर्ति के पर हम सीधा प्रथं करके अनर्थ को प्राप्त हो जाते हैं। सामने खड़े होकर जिम रोज हम कहेगं कि भगवान ? हम नब सवाल उठता है कि मी स्तुति क्यो की? इसका भीभगवान बनकर रहे गं, उसी राज वास्तविक दर्शन होगा। उत्तर है कि तत्वज्ञानी तो कोई-कोई होता है, वह तो वह कहता है कि है भगवान ! फिर दर्शन देना। यहा पर एसी स्तुति करने पर भी अर्थ ठीक समझ जाएगा और बात यह है कि फिर दर्शन की जरूरत ही न रहे। जब प्रज्ञानी कम-से-कम कर्ता समझकर भी इसमे लगेगे तो तक अग्रेजो को कहते रहे कि हमे स्वराज्य दे दो, उन्होने मागे चलकर तत्व समझकर इसको ठीक समझ लेगे, एसा नहीं दिया। परन्तु जब यह कहा कि हम स्वराज्य लकर मन में प्रवधारण कर व्यवहार दृष्टि से स्तुति की रहगे, उस रोज स्वराज्य मिल गया । यहा भगवान सर्वज
कहते है कि परमात्मा होना तेरा जन्मसिद्ध अधिकार है,