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________________ भगवान पाश्र्व के पंचमहावत के चार पदघर भगवान पार्श्वनाथके निर्वाणवाद के २५० कहा जा रहा है) पार्श्व से मिले हों पर, यह कैसे कहा जा वर्षों में मुक्त हुए । इस सबंध मे वास्तविक स्थिति यह सकता है कि जो पाश्व के थे वे सभी बद्ध ने अपना लिए है कि प्रदेशी राजा को प्रतिवोध देने वाले केशी और गौतम या जान लिए हो । हो सकता है और जसा देखा भी जा गणधर के साथ संवाद करने वाले केशीकुमार श्रमण एक रहा है कि बौद्धो मे चार संख्या की भरमार रही है। न होकर अलग अलग समय मे दो केशि श्रमण हा है। अतः उन्होंने पार्श्व के धर्म को भी चार की अपेक्षा मे 'प्राचार्य केशी जो कि भगवान पार्श्वनाथ के चौथे देखा हो और पाश्व के धर्म को चातुर्याम नाम दे दिया पट्टघर और प्रदेशी के प्रतिवोधक मार गए है उनका काल हो । अन्यथा वस्तुत. तो इसका स्पष्टीकरण 'चातुज्जाम 'उपकेशगच्छ पट्टावली' के अनुसार पार्श्व निर्वाण संवत् सक सवर संजुत्तो' प्रसग म जैसा हो रहा है, वैसा स्वीकृत होना चाहिए। १६६ से २५० तक का है । यह काल भगवान महावीर की अजात शत्रु ने बुद्ध का बतलाया कि वह स्वय निगछद्मस्थावस्या तक का ही हो सकता है। इसके विपरीत ठनाथपुत्त (महावीर) से मिले और महावीर ने उनसे श्रावस्ती नगरी में दूसरे केशीकुमार श्रमण और गौतम कहा कि -निर्गथ 'चातुर्याम सवर सवृत' होना है। अर्थात् गणधर का समिलन भगवान महावीर के केवलीचर्या के वह (१) जल के व्यवहार का वारण करता है, (२) सभी १५ वर्ष बीत जाने के पश्चात् होता है । इस प्रकार प्रथम पापों का वारण करता है (३) सभी पापो का वारण केशी श्रमण का काल महावीर के छद्मस्थकाल तक का करने से धुनपाप होता है (४) सभी पापो का वारण ''.''ठहरता है।' करने में लगा रहता है। अतः वस्तुस्थिति यह भी हो ____ इसके अतिरिक्त रायवसेणी सूत्र में प्रदेशी प्रति सकती है कि चातुर्यामसवर के स्थान में लोमा ने सवर' वोधक कैशिश्रमण को चार ज्ञान का घारक बताया शब्द छोड़ दिया हो और कालान्तर मे 'चातुर्याम' से गया है तथा जिन केशि श्रमण का गौतम गणघर के अहिंसा प्रादि को जोड़ दिया हो । अन्यथा चातुर्यामसंवर' साथ श्रावस्ती में संवाद हुमा, उनके उत्तराध्ययन के स्थान पर 'चतु. सवर' ही पर्याप्त था। 'याम' का सूत्र में तीन ज्ञान का धारक बताया गया है कोई प्रयोजन ही नही दिखाई देता। प्रत. फलित होता [केशीकुमार समणे, विज्जाचरणपारगे मोहिनाणसुए ' है कि ऊपर कहे गए 'चातुर्तामसंबर' के अतिरिक्त अन्य उत्तरा, अ० २३)। कोई चातुर्याम नही थे। ऐसी दशा में प्रदेशी प्रतिवोधक चार ज्ञानधारक केशी- बौद्ध ग्रन्थों में अनेक प्रसंगों में चार को सख्या उपश्रमण जोमहावीर के छास्थ काल में हो सकते है, उनका लब्ध होती है। कई में तो [कथित-प्रभिद्ध किए गए] नार महावीर के कंवलीचर्या के १५ वर्ष वाद तीन ज्ञान के यामों से पूरी पूरी समता भी दृष्टिगोचर होता है । जैसे घारक रूप में गौतम के साथ मिलना किसी तरह युक्ति चार कर्मक्लेश' 'चार पाराजिक' पोर चार प्राराम सगत और सभव प्रतीत नहीं होता।' पसन्दी इत्यादि । -जैनधर्म का मौलिक इतिहास प्रा० हस्तीमल जी (१) चार कर्मक्लेश-इनका वर्णन दीपनि काय' के सिलोमहाराज । पृ० ३२८-३३ गवाद सुत ३१८ में किया गया है। वहा चारों के नाम इसमे सदेह नही कि निर्ग्रन्थो का अस्तित्व बद्ध से इस प्रकार गिनाए गए है--१. प्राणिमारना २ पूर्व विद्यमान था। और जैसी कि कई इतिहास अन्वेषियों अदत्तादान ३. झूठ बोलना ४. काम । की धारणा है कि म. बुद्ध ने पार्श्वनाथ के धर्म को स्वी (२) चार पाराजिक-इनका वर्णन “विनयपिटक' में इस कार किया था, और बाद को छोड़ दिया। सो यह भी ठीक प्रकार है -१. हत्या, २ चोरी ३. दिव्यशक्ति हो सकता है। पर यह कहना नितान्त भ्रमपूर्ण है कि बुद्ध (अविद्यमान) का दावा, ४. मैथुन ।। ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम को अपनाया था। यह तो सभव (३) चार माराम पसदी-इनका वर्णन 'दीघनिकाय' है कि बुद्ध को महिंसा प्रादि के स्रोत (जिन्हें चातुर्याम (शेप १० २८ पर)
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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