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सोलंकी-काल के जैन मन्दिरों में जनेतर चित्रण
डा. हरिहर सिंह गजरात में ११वी से १३वी मदी तक सोलंकी कुम्भारिया स्थित शांतिनाथ-मन्दिर (१०८१०)के गजाओं का प्रभुत्व था। इम काल में गजगत एक भक्ति- गर्भगृह द्वार तथा उत्तरी मुखचतुष्की द्वार पर गंगा-यमुना शाली राज्य बना। इसक्री गजांतिक मीमाओं का विग्तार की मूर्तियां प्रदर्शित है। चागें मूर्तियाँ त्रिभंग मुद्रा में खडी तो हआ ही, आथिक एवं मिक क्षेत्र में भी काफी है। इनके एक हाथ में जलपात्र और दूमरा कट्यवलंवित उन्नति हुई। इस काल में य: वनाम्बर जैनधर्म का है। पहचान के लिए इनके वाहन भी अफिन है अर्थात बोलबाला था। कलिकाल मर्वन आ० हेमचन्द्र के प्रभाव गगा के माय मकर और यमना के साथ कूर्म । तत्कालीन गे मारपाल जमे प्रतापी राजा ने जैनधर्म अगीकार कर हिन्दू मन्दिरो में भी ये इसी प्रकार प्रदगित है, परन्तु लिया और परमाईन् विन्द गे अनिहित हुआ । गुजगन के गजगत के अन्य किसी भी जैन मदिर की द्वारशाखाओ अधिकाश मुन्दर एव विशाल जैन पन्दिर इमी काल में पर इनको मुनियाँ नहीं है यद्यपि मध्यभारत (व जराहो निर्मित हुए । तत्कालीन सभी जैन मन्दिर श्वेताम्बर है। आदि) के जैन मन्दिरो में इन्हे याचिन स्थान प्राप्त है। ये कला एवं स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने है। आबू (मम्प्रति गजगत के अन्य जैन मन्दिगं में इनके स्थान पर प्रायः मिरोही, राजस्थान) और कुभारिया (बनाम काटा, जनपात्र धारण की ई नारी को आमूनित किया गया है। गजगत) के जैन मन्दिर तो न केवल गुजगत प्रत्गुन जनधर्म मे नदी-पूजा का कोई महत्व नहीं है और सम्भवत. सम्पूर्ण भारत की शान है।
इमीलिए अन्य जैन मन्दिगे में इन्हें प्रगित नहीं किया गया विन्यास की दृष्टि से जैन मन्दिर सामान्यतया सम- है। प्रस्तुत जैन मन्दिर में इन नदी-देवियों का अंकन मामयिक हिन्दू मन्दिरो से माभ्य रखते है, तथापि जैन आकस्मिक ही है। सम्भवतः कलाकार हिन्दू धर्मावलम्बी मन्दिरों की कुछ अपनी विशेषताए हैं जमे गूडमण्डप और था और उसने अपने धर्म का उद्घाटित करने के लिए रंगमण्डप के बीच मे त्रिकमण्डप का निर्माण, मन्दिर के जलपात्र धारण की हुई नारियो के माथ देवियों के वाहन चारो ओर देवकुलिकाएं, मन्दिर के सामने बलानक की अंकित कर उन्हे गंगा-यमुना का रूप दे दिया। यह भी मरचना इत्यादि। उनके अलंकरण मे भी थोडी भिन्नता सम्भव है कि सूत्रधार ने भल से इन्हे यहाँ प्रदर्शित किया हो। है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जैनधर्म का अपना आब के आदिनाथ-मन्दिर मे देवकूलिकाओं के सामने देवकूल है। अत. मन्दिर की साज-सज्जा में जैन-मूर्तियो एवं निर्मित पट्टशालिका (भमती या भ्रमन्तिका) के तीन प्रतीकों का ही भरपूर उपयोग किया गया है। परन्तु जैन वितानों मे हिन्दू चित्रण है। देवकुलिका संख्या ११ में जैन देवकुल में सभी देवता जैन ही हों ऐसी बात नहीं है। विद्यादेवी रोहिणी के तीन ओर गणेश, वीरभद्र और अष्टदिकपाल, गणेश इत्यादि हिन्दू देवताओ को जैन देव- औरत के साथ मातकाओं कुल में ज्यो का त्यों आत्मसात् कर लिया गया है। जैन सभी मूर्तियां चार मुजावाली है और ललितासन मुद्रा में मन्दिरों में कुछ ऐसे भी चित्रण है जो निश्चित रूप से आसीन है। प्रत्येक को उसके वाहन एवं आयुधों के साथ हिन्दू ही है जिन्हे प्रायः मन्दिर के भूषण स्वरूप ही स्वी.
उत्कीर्ण किया गया है। इनमे वैष्णवी, चामुण्डा और कार किया गया है। ऐसे चित्रण कुम्भारिया के शांतिनाथ
माहेश्वरी की पहचान स्पष्ट है। जैन देवकुल में सप्तमातमन्दिर में और आबू के आदिनाथ-मन्दिर (विमलवसही)
काएं नही है, अतएव इनके हिन्दू होने में किचित् भी में सुरक्षित हैं।
संदेह नहीं है।