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४८, वर्ष ३०, कि० ३-४
अनेकान्त
देवकुलिका संख्या २६ में कालीय नाग-पाश का दृश्य आयुधों से युक्त वह दैत्यराज हिरण्यकश्यप को अपने दोनों चित्रित है । संपूर्ण वृश्य को तीन भागों में दर्शाया गया पैरों के बीच दबाकर उसके पेट को पैने नाखून से फाड़ है। वर्गाकार मध्यभाग में वृत्त में कृष्ण द्वारा कालीय के रहे हैं । खड्ग एवं ढाल धारण किये हुए दैत्यराज बिलबाँधने का चित्रण है। कालीय तीन फणों से युक्त है, उस- कुल बेबस मालूम पड़ता है। सम्पूर्ण चित्रण सोलह पंखका ऊपरी भाग मानवाकार तथा निचला नाग जैसा है। ड़ियों वाले गोल पद्म के बीच प्रदशित है। यद्यपि मूर्ति उसे अनेक गिरहों में समूचे वृत्त मे रखा गया है। कृष्ण एक समतल शिलाखण्ड पर बनाई गई है, तथापि उसमें उसके कंधे पर सवार होकर एक हाथ से उसे नाथ रहे है पर्याप्त उभार है और कला का एक उत्कृष्ट नमूना है । तथा दूसरे में चक्र धारण किये हुए हैं। कालीय शांतमुद्रा परन्तु दैत्यराज के मुख से उसके भयमीत होने का कोई में दोनों हाथ जोडे हुए है जो उसकी पराजय का द्योतक चिन्ह नही दिखता। इसे मूर्तिकार की कमजोरी ही कह है । इगी दृश्य में हाथ जोटा गाT नागिनियों का भी सकते हो नि चित्रण है। आयताकार पादत्र भागों में एक आर वृष्ण नमिह को विष्ण का अवतार कहा है। अन्य खिलाड़ियों के साथ कन्दुक खेल रहे है तथा दूगरी ओर कृष्ण (विष्णु के अवतार) शेषनाग पर गयन कर रहे विमलवमही के उपर्य क्त दोनों वैष्णव चित्रण है, लक्ष्मी चंवर ला रही है और एक गण उनके कर का (कालियादमन व नृमिहावतार) भ्रमंतिका के प्रमुख मर्दन कर रहा है। दगी दृश्य में कृष्ण चाणर का द्वन्द्व भी आकर्षण है । जहाँ सब कुछ जैन ही वहाँ इस प्रकार के प्रणित है। हालांकि कालीय पाग की कथा जैन पुराणों में चित्रणो को कैसे स्थान मिला, यह एक विचारणीय प्रश्न काफी मशहर है परन्तु प्रस्तुन दृष्य हिन्दू कथा की ही है। मभवतः कलाकार वैष्णव धर्मावलम्बी था। जहां उसने अनुकृति है, क्योकि कृष्ण के शेपणावी होने तथा कन्दक सैकड़ो जैन चित्रण प्रदर्शित किये वहाँ उसे कुछ-एक वैष्णव खेलने की कथा क्वल हिन्दू पुराणों में ही है।
चित्रण उत्कीर्ण करने में किचित् भी हिचकिचाहट नहीं
हुई । मन्दिर के सरक्षक ने भी इसका विरोध न कर देवकलिका सम्या ४६ मे मिहावतार का चित्रण समर्थन ही किया होगा, क्योंकि इससे न केवल मन्दिर के है। नसिह भगवान का ऊपरी भाग सिंह जैसा और गौरव में ही अपितु जनेतर लोगों को आकर्षित करने में निचला मानवाकार है। उनकी मोलह भुजाए है। विभिन्न भी सहायता मिली होगी।
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(पृष्ठ ४६ का शेपाश) महपि कुन्दकुन्द ने 'पचास्तिकाय' मे जैन चिन्तनधारा इस कर्मचक्र से मुक्ति पाने के लिये तीनों ही धाराएं के अनुरूप 'कर्मचक्र' को स्पष्ट किया है। मिथ्यादृष्टि, यत्नशील है । तदर्थ कही शील, समाधि भीर प्रज्ञा का अविरति, प्रमाद, कपाय और योग-सभी बन्ध के कारण विधान है और कही सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा हैं। यह तो माना ही गया है कि जीव और कर्म का अनादि सम्यक्चारित्र का तथा कही श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन सम्बन्ध है, अर्थात् जीव अनादि काल से संसारी है और का उपदेश है । कही परमेश्वर अनुग्रह या शक्तिपात, जो संसारी है वह राग, द्वेष आदि भावों को पैदा करता दीक्षा तथा उपाय का निर्देश है । इस प्रकार, विभिन्न है, जिनके कारण कर्म आते है । कर्म से जन्म लेना पड़ता मार्गों से हिन्दू संस्कृति की विभिन्न धाराओं में कर्मचक्र है, जन्म लेने वाले को शरीर ग्रहण करना पड़ता है। से मुक्ति पाने और स्वरूपोपलब्धि तक पहुंचने का क्रम शरीर से इन्द्रिया होती है। इन्द्रियों द्वारा विषयों का निर्दिष्ट हुआ है। जैन-दर्शन तो सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन ग्रहण होता है और विषयों के कारण राग-द्वेष होते है और तथा सम्यक चारित्र को सम्मिलित रूप से मोक्ष मार्ग फिर रागद्वेष से पौद्गलिक कर्मों का पाकर्षण होता है। मानता है। 000 इस प्रकार यह चक्र चलता ही रहता है।
अधिष्ठाता, कला संकाय, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन