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सरसावा के संत तुम्हें शत-शत वन्दन
- श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली
१० जून सन् १९४६ की उस पुनीत संध्या का पुण्य- सन्तृष्ट न कर सका मोर छ: माह बाद मुझे वहाँ से स्मरण मझे माज भी रोमाचित कर देता है, जब कि मैने चला पाना पड़ा। उन दिनों डा. ज्योतिप्रसादजी, लखनऊ सरसावा स्थिति वीर सेवा मदिर के विशुद्ध विशाल वहा थे । स्व. बा. जयभगवान जी, पानीपत प्रायः पाते प्रांगण मे पग धरा था। उपयुक्त भवन के विशाल द्वार रहते थे । स्व. बा. छोटेलाल जी कलकत्ता वालों का के बद फाटक की ग्निड़की से अपना बिस्तर-पेटी निकाल इस मंस्था पर वरद हस्त धा। मुख्तार सा० और उनमें कर जब यहाँ के सत बाबू जुगल किशोर जी मुख्तार के पिता-पुत्र का संबंध था। ला. सिद्धोमल जी कागजी कमरे के सामने वाली सीढियो पर रखा तो बाबू जी मुख्तार सा० का वड़ा पादर करते थे। कमरे से निकलकर पाए उनका सुन्दर सुगठित शरीर था। प्रादरणीय महनार सा० कितने अध्ययनशील. कठोर उन्होने बदन मे तनी वाली अगरखी और धोती पहन परिश्रमी, मितव्ययी और साहित्यसेवी थे, यह मैं उस रखी थी, नगे सिर थे, परो में खड़ाऊ डाले थे। कमरे मे समय
रामय तो अनुभव - रग का था, पर जब मझे साहित्य बाहर पाकर पूछा कहा से आए हो?" "बीना से" मैंने
का चम्का लगा और उनके शोधारक, युक्तियुक्त, प्रकाट्य रूखा-सा सक्षिप्त सा उत्तर दिया, क्योकि थका हुया था। साहित्यिक निबंधो का अध्ययन किया तो हृदय श्रद्धा से जन मास का ११ या १२ बजे का समय था। भूख लग गदगद हो उठा। मुन्नार सा० १६ से १८ घटे तक रही थी।
अध्ययन एव लेखन कार्य किया करते थे। उनकी टेबिल मुख्तार सातुरन्त ही कपरे के भीतर गए और
सदा ही ग्रयों से भरी रहती थी। मुख्तार सा० जरूरत से चाबियों का गुच्छा ले पाये और जो कमरा मुझे देना ज्यादा मितव्ययी थे। फलतः उनके प्रकाशन कार्यों मे प्रायः चाहते थे उसका ताला खोल दिया और स्नेह से कहा कि बाधा मा जाती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि उन यह रहा प्रापका कमरा । इममे अपना सामान रख लीजिए; दिनों कागज पर कन्ट्रोल था और अनेकान्त के प्रकाशन के मौर तरन्त ही पं०परमानदजी को प्रावाज देकर भोजन लिए सरकार से कागज का कोटा मिला करता था। प्रायः की व्यवस्था करादी । बीना का नाम सुनते ही मुख्तार शासकीय कारणो से कागज समय पर नहीं पा पाता था सा. मेरी नियुक्ति की वाबत सब कुछ जान गये थे, क्योकि तो अनेकान्त की किरण लेट हो जाया करती थी और .पं० दरबारीलाल जी कोठिया से उनका पत्र व्यवहार ग्राहकों के उत्सुकता भरे पत्र प्राने लगते थे, क्योंकि उन हो चुका था जिसमें मेरी नियुक्ति बावत सब कुछ निश्चित दिनो अनेकान्त की प्रतिष्ठा जैन जगत मे ही नहीं अपितु हो गया था।
जनेतर अनुसधित्सुनों में बहुत अधिक थी और वे लोग इस समय मैं सर्वथा अनुभवहीन, अपरिपक्वबुद्धि का वड़ी उत्सुकता से प्रत्येक किरण की प्रतीक्षा किया करते २० वर्षीय युवा छात्र ही था। इसी वर्ष स्याद्वाद् विद्यालय थे। छोड़ा था। मम्रता, कार्यकुशलता, सेवाभाव मादि मानवीय मख्तार सा०
मुख्तार सा. जैन पुरातत्व एव संस्कृति के वैज्ञानिक गुणो की सर्वथा कमी थी। केवल मेट्रिक और साहित्यशास्त्री सशोधक के रूप मे युग-युगों तक साहित्यानुरागियों द्वारा पास था। फलतः मैं अपनी कार्यकुशलता से मुख्तार सा० बदनीय रहेगे। मुख्तार सा० यद्यपि दिगम्बर माम्नाय के जैसे कठोर परिश्रमी और सर्वश्रेष्ठ साहित्यान्वेषक को कट्टर अनुयायी थे, पर उसमें जो कूड़ा-करकट, अनुचितता