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पर्व ३०, कि० ३-४
अनेकान्त कल्पना की उड़ान उड़ाते हुए न पाकर, जीवन में उतारने अनेकों उदीयमान विद्वान् युवकों को कुशल पर्यवेक्षक बाली जनता के कंठस्थ रहने वाली उत्तम रचनाएकरने और समीक्षा करने वाले प्राचार्य जैसे पद के योग्य बना बामा पाते हैं।
दिया। उनकी लोकप्रिय रचना 'मेरी भावना' कैसे रची उनकी पनी सूझ, अनवरत लगन, जिन शासन की गई, यह विचारणीय है। एक दिन उनकी विदुषी भक्ति, जैनधर्म प्रचार की अद्भुत कामना, विषय का तल बहिन ने कहा कि माप तो संस्कृत में सामायिक पाठ, स्पर्शी ज्ञान पौर चुने हुए मोतियों को छांट छांटकर निकास्तोत्र प्रादि पढ़ते है। हम हिन्दी में उन्हें कैसे पटे। लनेकी प्रवृत्ति ने उन्हें प्राचीन ऋषियो पौर विद्वानों की उन्होंने बात को समझा पोर ग्यारह पद्यो मे इतनी परम्परा में सलग्न कर दिया, जिन्होने अपनी भक्ति और रोचक, मूललित, प्रसाद-गुण-युक्त रचना को जिसका सभी कार्य करने की अद्भुत क्षमता के कारण वीर शासन की भाषामों में अनुवाद हो गया है। उसकी लाखो प्रतिया महसगुणी वद्धि की है। प्रकाशित हो चुकी है। उनकी मेरी भावना' ने घर-घरमे
हम भाकाक्षा करते थे कि ऐसे साहित्य मनस्वी, बच्चों को प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहन दिया। ने तापमष्टमुनिरिव सरस्वती के सच्चे साधक हमारी
काल अन्वेषक और सूनेखक थे। उनके इन्ही गुणो समाज में पैदा होते हे जो काशश की धवल चांदनी से प्रभावित होकर प्राज से तीस वर्ष पूर्व हमने एक साल की तरह जिन शासन को सदैव उद्योत करते रहे। विश्व लिखकर उन्हे अभिनन्दन-ग्रंथ भेट करने के लिए गमाज विज महिमा मोर अनेकान्त इन दो मल्लों की तरह का ध्यान प्राकर्षित किया। हर्ष है निनाला राजेन्द्र कुमार उनका बीजारोपण किया हुमा भनेकान्त' सदैव फूलता और जी की, जो विद्वानो के महान प्रेमो थे, अध्यक्षमा म फलना रहे, जिसकी छाया में जन साधारण विश्राम, शांति सहारनपर मे मस्तार सा०को ग्रथ भट किया गया। गौर सुख का अनुभव करे मोर विज्ञान परिमाजित मुरुमार सा. कलम के धनी भार जैन वाइमय के
___ मार्ग को प्रशस्त बनाते रहे।
OOD यशस्वी प्रस्तोता थे। छोटे से लेख में हम उनकी माहित्य मर्मज्ञता और विषय के अधिकारी रूप का सर्वाङ्गपूर्ण म० नं० २४७, एफ ब्लाक, दिग्दर्शन नही कर सकते, पर एक बात अवश्य कहेगे कि पाडवनगर, पटपड़गंज, उन्होंने सरस्वती की निस्पृहभाव से सेवा ही नही की बल्कि नई दिल्ली
वषम-अाह्वान अंहोमुचं वृषभं यज्ञियानं विराजन्तं प्रथममस्वाराणाम् ।
अपां नपातमस्विना हुवे धिय इन्द्रियेण तमिन्द्रियं दत्तभोजः ।। अथर्ववेद १६।४।४ सर्व पापों से सदा जो मुक्त,
मेरे सह बन्धुनो! देवतामों में सर्व शीर्षस्थ,
तुम पात्मबल और वन्दनीय, वृषभ है नाम जिनका,
तेज को धारण करो पात्म साधको में प्रथम हैं
मैं हृदय से प्राह्वान करता हूं पौर इस भवसिन्धु से
वृषभ का। पोत जैसा तारना है काम जिनका,
प्रस्तोता : श्री मिश्रीलाल जैन, गुना