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________________ रयणसार रचयिता कौन? सम्यग्दष्टि का ऐसा लक्षण इसी ग्रन्थ में मिलता है हैं। १२ व्रतों के ५-५ अतिचार होते हैं सो वे व्रत नियम अन्यत्र शायद ही मिले। के ५ अतिचार कौन से हैं यह स्पष्ट किये जाने की गृहस्थ के प्रावश्यक षटकर्मों में दान का अन्तिम भावश्यकता है। स्थान है, किन्तु रयणसार के कुन्दकुन्द्र दान को देव पूजा मुनि के लिए विभिन्न वस्तुपो में ममत्व का निषेध से भी पहले मुख्य स्थान देते है - इस प्रकार किया गया है: वसदी पडिमोवयरणे गणगच्छे समयमंधनाइकुले । दाणं पूया मुखं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । सिस्सपीड सिस्म छत्ते सुयजाते कप्पड़े पुत्ये ॥१४४।। श्रावक के षटकर्तव्यों का क्रम इस प्रकार है-देव पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइममयारं । पूजा, गुरु उपामना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान । यावच्च अट्टरुद्द ताव ण मुचेदि ण हु सोक्वं ॥१४६।। दान का अन्तिम स्थान होते हुए भी स्वाध्याय, संयम, तपादि की सर्वथा उपेक्षा कर दान को प्रथम स्थान देना (यदि साधु वसतिका, प्रतिमोपकरण मे, गणगच्छ में तथा १५५ गाथायों के ग्रन्थ में दान की व्याख्या एवं शास्त्र संघ जाति कुल में, शिष्य-प्रतिशिष्य छात्र में, सुत प्रशंसा मे ३०.३१ गाथाएँ लिखना बताता है कि इस प्रपौत्र मे, काड़े मे, पोथी में, पीछी मे, विस्तर मे, इच्छानों ग्रन्थकार को दान अतिषिय पा । भट्टारकगण नाना प्रकारो में लोभ से ममत्व करता है और जब तक आर्तरोद्र ध्यान से धन संग्रह किया करते थे। षट् कर्तव्यों मे दान को नहीं छोड़ता है तब तक सुखी नहीं होता है।) मुख्य एवं प्रथम स्थान देना उसका सर्वोच्च फल तीर्थकर ती क्या दिगम्बर जैन साधु कपड़े, प्रतिमोपकरण, विस्तर पद एवं निर्वाण अदि बताना केवल इसीलिए था कि मानवता प्रादि रखता है, जो उनके प्रति ममत्व का फल बताया भक्त लोग उन्हें दान देते रहें। गया है। ये गाथाएँ किसी अदिगम्बर द्वारा लिखी हुई हो मेरा प्राशय यह नहीं है कि दान का कोई महत्व तो कोई प्राश्चर्य नहीं है। उक्त गाथा में प्रयुक्त 'गण नही है। थावक के कर्तव्यो मे उराका अन्तिम स्थान है गच्छ' का गठन कन्दकुन्द के बहुत काल बाद हुआ है। (जो कि तर्क सिद्ध एवं बुद्धिगम्य भी है)। उसको उसके । उमास्वामी ने अपने मूत्र २४ अध्याय ६ मे गण शब्द का बजाय प्रथम स्थान कसे दिया गया ? इरा ग्रन्थ में श्रावक प्रयोग उवा गणगच्छ के अर्थ मे नही किया है। डा. के अन्य प्रावश्यकों, व्रतों, प्रतिमानों का नामोल्लेख मात्र देवेन्द्रकमार जी ने उमास्वामी के उक्त सूत्र का हवाला किया गया है देते हुए कुन्दकुन्द कृत ही माना है, किन्तु उनके काल में ___ इस ग्रन्थ की ७वी गाथा में सम्यग्दृष्टि के चवालीस गण या गच्छों का गठन नहीं हुमा यह तो निश्चित ही (सपादक के शब्दो मे) दूषण न होना बताया है। २५ है। उत्तरकालीन रचनायो में ही गण-गच्छ का प्रयोग दोष, ७ व्यसन, ७ भय एवं अतिक्रमण-उल्लघन ५ इम मिलता है। इसीलिए डा० ए० एन० उपाध्ये, डा० हीराप्रकार कुल ४४ दोष बताए गए है । परम्परा में सम्यग्दृष्टि लाल जी, प० जुगल किशोर जी मुमार सदृश अधिकारी के २५ दोषों का उल्लेख तो यथा प्रसग सर्वत्र मिलता है विद्वानों ने इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्द की रचना गानने में किन्तु इन ४४ दोपों का उल्लेख अन्यत्र देखने मे नही सन्देह व्यक्त किया है। प्राया। कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती किसी प्राचार्य या ग्रथकार ने इस रयणसार को न पढ़ने सुनने वाले को टीकाकार ने इनका उल्लेख नही किया। इसका कारण मिथ्यादृष्टि बनाया हैयही प्रतीत होता है कि उक्त प्राचार्यों के समक्ष यह गंधमिण जो ण दिइ ण हु मण्णइ ण हु रयणसार न रहा हो। अतिक्रमण-उल्लंघन के ५ प्रतिचार सुणेइ ण हु पढ़। कौन से है यह भी देखने मे नही पाया। डा. देवेन्द्र ण हु चितइ ण हु भावइ गो चेव हवेइ कुमार ने व्रत नियम के उल्लंघनस्वरूप ५ अतिवार लिमे कुट्ठिी ।।१५४।।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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