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५८, वर्ष ३०, कि०२
अनेकान्त
जो जीव मनियों के प्राहार दान देने के पश्चात् जिनदेव द्वारा कथित सप्तक्षेत्रों में बोता है वह तीन लोक अवशेष अंश को सेवन करता है वह ससार के सारभूत के राज्य फल-पंचकल्याणक रूप फल को भोगता है। उत्तम सुखों को प्राप्त होता है और क्रम से मोक्ष सुख को इन सप्तक्षेत्रों का किसी प्राचीन ग्रन्थ में उल्लेख प्राप्त करता है।
देखने में नहीं आया। डा. देवेन्द्रकुमार जी ने भावार्थ में क्षुल्लक ज्ञानसागर जी ने अवशेष अंश के लिए लिखा सतक्षेत्र इस प्रकार लिखे है-१. जिन पूजा, २. मन्दिर है कि इसको प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए, इसका प्रादि की प्रतिष्ठा, ३. तीर्थयात्रा, ४. मुनि भादि पात्रों को दानसार में महत्व बताया गया है ।
दान देना, ५. सहमियों को दान देना, ६. भूखे-प्यासे अब तक मैंने रयणसार की ४-५ मद्रित प्रतियां देखी तथा दुखी जीवों को दान देना, ७. अपने कुल व परिवार है, उनमें यह गाथा उक्त रूप में ही लिखी गई है। समण- वालों को सर्वस्वदान करना। कुन्दकुन्दाचार्य, उनके टीकासुत्त मे भी उक्त गाथा इसी रूप में सम्मिलित की गई है कार व अन्य प्राचार्यों के प्रन्थों में क्षेत्र के ये भेद देखने किन्तु अभी डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित में नहीं पाए । प्राचीन ग्रन्थों में उत्तम, मध्यम एवं जघन्य रयणसार इस गाथा में प्रागत 'म निभत्तावमेंस' को मणि- पात्रो के नाम से तीन भेद पात्रों के है, फिर कुपात्र एव भुक्ताविसेंस लिखा गया है। यह परिवर्तन सम्भवतः इसी प्रपात्र है। ये सप्तक्षेत्र कब से किस शास्त्रकार ने मान्य लिए किया गया है कि प्रसाद साने का जैन परम्परा से किये है, इसका स्पष्टीकरण प्रावश्यक है। इनमें अतिम किसी प्रकार प्रौचित्य सिद्ध नही होता, अन्यथा इस परि. चार क्षत्र दात्तया (पात्रदात्त, समद
चार क्षेत्र दत्तियो (पात्र दत्ति, समदत्ति, दयादत्ति और वर्तन का कारण उन्होंने नही बताया।
अन्वयदत्ति) के नाम से आदिपुराण में भरत चक्रवर्ती ने निम्न गाथा में मुनि के लिए देय पदार्थों की सूची
अवश्य बताये है। पुत्र-परिवार को समस्त धन संपदा दी गई है
देना तीन लोक के राज्य फलस्वरूप पचकल्याण रूप फल हिय मिय-मण्णं पाण णिरवज्जोसहि णिराउल ठाणं ।
अर्थात् तीर्थकर पद देता है, ऐसा कुन्दकुन्द या अन्य किसी सयणासणभुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्खरग्रो ॥२३॥
आचार्य ने नही लिखा। सभी मनुष्य मरते समय या वैसे
भी अपनी धन-संपदा पुत्र परिवार को दे जाते है। क्या मोक्षमार्ग मे स्थिर (गृहस्थ) (मुनि के लिए) हित
व तीर्थकर प्रकृति के फल को पाते है ? ऐसा कथन कर्म कर परिमित अन्नपान, निर्दोष पौषधि, निराकुल स्थान,
सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। यं डा० देवेन्द्रकुमार जी शयन, प्रासन, उ करण को समझकर देता है। (डा०
भी उक्त गाथा से सहमत नही दिखते है, इसीलिए उन्होंने देवेन्द्र कुमार जी ने भावार्थ मे उपकरण के बाद कोष्ठक मे
भावार्थ में 'पचकल्लाणफल' का अर्थ नही दिया। उत्तम "पादि" और लिखा है)। मुनि के लिए शयन, प्रासन,
पात्र मुनि को धन देने के लिए कुन्दकुन्द जैसे निग्रंथ उपकरण और प्रादि क्या है ? अाज मुनिगण अपने इन
तपस्वी कैसे कह सकते थे ? उनकी गाथाओं में तो मुनि शयन, प्रासन, उपकरण आदि के नाम पर इतना परिग्रह
को द्रव्य देना पापमूलक ही बताया गया है। रखते है कि उन्हें लाने ले जाने के लिए बड़ी-बड़ी बसें
गाथा सख्या २ में सम्यग्दष्टि का निम्न स्वरूप चाहिए। इतने परिग्रह को रखते हुए वे मुनि निग्रंथ दिगम्बर कैसे कहला सकते है ?
बताया है - निम्न गाथा मे सप्त क्षेत्रों मे दान देने का फल इस
पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्रियं गणहरेहिं वित्थरियं । प्रकार बताया गया है
पुवाइरियक्कम त बोल्लइ सोह सद्दिट्ठी ॥२॥ इह णि यमुवित्तबीय जो ववइ जिणुत्तसत्त खेत्तेसु । (जो) पूर्वकाल मे सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए, गणघरों सो तिहुवण रज्जफल भुंगादि कल्लाणपंचफल ॥१६॥ द्वारा विस्तृत तथा पूर्वाचार्यों के क्रम से प्राप्त वचन को इस लोक में जो व्यक्ति निज श्रेष्ठ धन रूप बीज को ज्यों का त्यों बोलता है वह विश्चय से सम्यग्दृष्टि है।