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रयणसार के रचयिता कौन ?
या
यदि गृहस्थ पाहार मात्र भी दान देता है तो धन्य वस्तुत: ऐसी गाथा कोई भट्टारक या शिथिलाचारी हो जाता है । साक्षात्कार होने पर उत्तम पात्र-अपात्र का ही लिख सकता है जो चाहता है कि लोग उसे माहार विचार करने से क्या लाभ ?
दान देते ही रहें, चाहे उसके प्राचरण कैसे ही क्यों न हों। इसी गाथा के प्रागे १५ से २०वी गाथा में उत्तम उनकी परीक्षा न करे और एक बार माहार देने पर पात्र को ही दान देने का फल बताया है, न कि प्रपात्र को उसकी फिर परीक्षा करना या शिथिलावारी या अनाचारी दान देने का फल । कुन्दकुन्दाचार्य कृत किसी भी रचना मान लेने पर भी उसको प्रकाश में लाना सम्भव नही हो में नहीं लिखा है कि अपात्र को दान देना चाहिए। सकेगा। प्रवचनसार की गाथा २५७ में अपात्र को दान देने
यशस्तिलक चम्पू काव्य में उक्त १४वीं गाथा के का फल इस प्रकार बताया है:
प्राशय का निम्न श्लोक मिलता हैजिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय भुक्तिमात्र प्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । कषायो में अधिक हैं, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा उपकार या
ते सन्त, सन्त्व-सन्तो वा गृहीदानेन शुद्धयति ।।३३।। दान कुदेव रूप में पोर कुमानुष रूप में फलता है।
उक्त चम्पू काव्य उत्तरकालीन रचना होने के साथ
साथ एक काव्य ग्रन्थ है, जिसको प्राचार शास्त्र या दर्शन वसुनन्दी श्रावकाचार में २४२वीं गाथा में प्रपात्र
की मान्यता नही दी जा सकती। वैसे सिद्धान्त की दृष्टि दान का फल निम्न प्रकार लिखा है :
से उक्त श्लोक भी प्रागम परम्परा के प्रतिकूल ही है, जिस प्रकार ऊपर भूमि में बोया हमा बीज कुछ भी
क्योंकि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ सच्चे साधु को ही वन्दनापूर्वक नही उगाता है उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी
पाहार दे सकता है, वह अमाधु की वन्दना नहीं कर फल रहित जानना चाहिए।
सकता । शास्त्रकारों ने मिथ्यादृष्टि को अपात्र कहा है और
प्राज भी शिथिलाचारियों के विरोध की बात पर उसे दान देने का फल इस प्रकार बताया गया है। दर्शन
उक्त गाथा की दुहाई दी जाती है और उनको दान देने पाहड की टीका मे लिखा है कि मिथ्था-दृष्टि को अन्ना
का समर्थन किया जाता है । रयणसार की अन्य गाथाओं दिक का दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है
मे उत्तम पात्र को दान देने वाली जो गाथायें है उन्हे मिथ्या दृष्टि को दिया गया दान दाता को मिथ्यात्व
उद्धत नही किया जाता, किन्तु १४वी गाथा अवश्य उद्बढ़ाने वाला है। इसी प्रकार सागारधर्मामृत में लिखा
घृत की जाती है। समणमूत्त में भी उक्त गाथा का समा. है-चारित्राभास को धारण करने वाले मिथ्पादृष्टियों वेश किया है, जब कि उत्तम पात्र को दान देने को प्रेरणा को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान केवल प्रशुभ देने वाली न केवल रयणसार में अपितु अन्य सभी शास्त्रों के लिए ही होता है। (२१.६४/१४६)।
में गाथाएँ है, किन्तु वे गाथाएं समणमूत मे नही दी उपासकाध्ययन मे उस दान को सात्विक कहा गया गई है। है जिसमे पात्र का परीक्षण व निरीक्षण स्वयं किया गया इस प्रकार की गाथानों से अपात्रों-मिथ्याष्टि, हो मोर उस दान को तामस दान कहा गया है जिसमें शिथिलाचारी एवं अनाचारी को प्रोत्साहन एव समर्थन पात्र-अपात्र का ख्याल न किया गया हो। सात्विक दान मिलता है। ऐसी गाथा कुन्दकुन्द जैसे पागम परम्परा के को उत्तम एवं सब दानों में तामसदान को जघन्य कहा संस्थापक की नही हो सकती। गया है। (८२६-३१)।
मुनि के आहार के पश्चात् प्रसाद दिलाने वाली निम्न पाठक विचार करें कि अपात्र के दान का इस प्रकार गाथा भी विचारणीय हैका फल होने पर कुन्दकुन्दाचार्य जैसा महान् प्राचार्य कैसे जो मुनिभुत्तवसेसं भुंजइ सो भुजए जिणुवदिछ । कह देता कि पात्र-अपात्र का क्या विचार करना?
संसार-सार-सोक्खं कमसो णिश्वाणवरसोकाव ।।२।।