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५६, वर्ष ३०, कि० २
अनेकांत
१. कुन्दकुन्दके सभी 'सार' ग्रन्थों (प्रवचनसार, नियम- ही नहीं। उसका प्रचलन एवं प्रयोग कुन्दकुन्द के सैकड़ों सार और समयसार) पर संस्कृत टीकाएं उपलब्ध है वर्ष बाद हुआ है। फिर अपभ्रश की गाथायें रयणसार में जबकि इसी तथाकथित 'सार' (रयणसार) की सम्कृत कैसे प्रा गई। डा० लालबहादुर जी शास्त्री के शब्दों में, टीका नहीं है। प्राचीन काल में कुन्दकुन्द के उक्त तीनों इसकी भाषा स्खलित है। इससे स्पष्ट है कि यह रचना ग्रन्थ नाटकत्रयी के नाम से विख्यात है और यदि उनके
कुन्दकुन्द के बहुत काल बाद जब अपभ्रंश का प्रयोग होने सामने यह 'रयणसार' उपलब्ध होता तो नाटकत्रयी ही लगा होगा, अन्य किसी द्वारा लिखी जाकर कुन्दकुन्दाचार्य क्यों कहते ?
के नाम से प्रचारित की गई होगी: २. कुन्दकुन्दाचार्य से लेकर १७वीं शताब्दी तक न १७वी-१८वी शताब्दी मे अचानक इस ग्रन्थ का तो इसकी कोई हस्तलिखित प्रति मिलती है, न किसी भी प्रादुर्भाव कैसे हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। प्राचार्य या विद्वान् ने उस समय तक इसका कोई उल्लेख यह ठीक है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक मे कुन्दकुन्द का नाम या उद्धरण दिया है। कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र, बिना दिये 'रयणमार' की एक गाथा उद्धत की यई है। पद्मप्रभुमलधारी, जयसेन आदि टीकाकारो ने भी इसका पाठको को ध्यान रहे कि इस ग्रन्य में प्रजैन ग्रन्थों के कही भी उल्लेख नहीं किया। प० पाशाधर, श्रुतसागर उद्धरण भी यथा प्रसंग उद्धत किये गये है, अतः उसी प्रकार मादि टीकाकारो ने भी पानी टीकामो मे इसका उल्नख रयणसार की गाथा भी उद्धत की गई हो तो क्या प्राश्चर्य नहीं किया, जबकि उनकी टीकामो में प्राचीन ग्रन्थो के है ? १८वी १६वी शताब्दी मे हुए भूधरदास जी एवं ५० उद्धरण प्रचुरता से मिलते है।
सदासुखजी ने इसे कुन्दकुन्द कृत कहा है । सम्भव है कि ३. १७वी शताब्दी से पूर्व की इसकी कोई हस्त- उस ममय कुन्दकुन्द का नाम होने के कारण इस ग्रन्थ का लिखित प्रति लगनकाल युक्त अभी तक नहीं मिली। कोई विषय, सिद्धान्त, ओली प्रादि का विशेष विवेचन न किया व्यक्ति किसी प्रति को अनुमान से किसी भी काल की गया होगा और इसे कुन्दकुन्द की रचना लिख दी हो, बता दे, वह बात प्रामाणिक नही कही जा सकती। जैसा कि शज भी हो रहा है। कुछ लोग इसके प्रचार
४. कुन्दकुन्दाचार्य की रचनायो मे विषय को व्यव- के कारण इसे कून्दकुन्द कृत मान लेते है और दूसरे से स्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है जबकि इसमे पं. ये पूछते है कि इसे क्यों नही मानते । जगलकिशोर जी मुख्तार के शब्दो मे, विषय बेतरतीबी से रयणसार को कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये है। वैसे कहा यह जाता है कि 'रयण. इसमे मगलाचरण, प्रन्तिम पद व कई विषय ऐसे लिखे सार' की रचना प्रवचनसार और नियमसार के पश्चात् गये है जो कुन्दकुन्द की रचना से साम्यता लिए हुए प्रतीत की गई थी (देखें रयणसार प्रस्तावना डा. देवेन्द्रकुमार हों और दूसरी ओर कुन्दकुन्द एवं दिगम्बर मान्यता से शास्त्री, पृ० २१)। किन्तु रयणसार एवं इन ग्रन्थों की असम्मत मत भी इसमें प्रस्तुत कर दिये गये है ताकि लोग तुलना से विदित हो जाता है कि प्रवचनसार और नियम- उन असम्मत मतो को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत मान लें। सार जैसे प्रोढ़ एव सुव्यवस्थित ग्रन्थों का रचयिता रयण- प्रब रयणसार की ऐसी गाथानों पर विचार किया सार जैसी संकलित, अव्यवस्थित, पूर्वापर-विरुद्ध और जाता है जो पागम परम्परा, कुन्दकुन्दाचार्य कृत अन्य मागम विरुद्ध रचना नही लिखेगा। (इसके पागम विरुद्ध रचनात्रों एवं रयणसार की ही अन्य गाथानों के विपरीत मंतव्यों का मागे विवेचन किया जायगा)।
मान्यता वाली है। ५. इसकी विभिन्न प्रतियों में गाथा संख्याएँ समान दान के प्रसग मे पात्र और प्रपात्र का विचार न नहीं है, वे १५२ से लेकर १७० तक है ।
करने वाली निम्न गाथा उल्लेखनीय है: ६. कुन्दकुन्दाचार्य के प्रन्थों मे उच्चस्तरीय प्राकृत दाणं भीयणामेत्त दिप्णइ घण्णो हवेह सायारो। भाषा के दर्शन होते है, उनके काल में अपभ्रंश भाषा थी पत्तापत्तविसेस संदसणे कि विधारेण ॥४॥