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________________ हेमचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना 0 डा. मोहनलाल मेहता आचार्य हेमचन्द्र का जैन साहित्यकारों में ही नही. है। इसमें सात अध्याय संस्कृत के लिए हैं तथा एक समस्त संस्कृत साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है। इन्गेन अध्याय प्राकृत (एवं अपभ्रंश) के लिए है। इस व्याकरण साहित्य के प्रत्येक अंग पर कुछ न कुछ लिखा है। कोई की रचना इतनी आकर्षक है कि इस पर लगभग ६० ऐसा महत्वपूर्ण विषय नही जिस पर हेमचन्द्र ने अपनी टीकाएँ एवं स्वतन्त्र रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। लेखनी न चलाई हो। इन्होंने व्याकरण, कोश, छन्द, काव्यानुशासन-यह अलंकार शास्त्र है । इसमें काव्य अलंकार, काव्य, चरित्र, न्याय, दर्शन, योग, स्तोत्र, नीति के प्रयोजन, हेत, गण-दोष, ध्वनि इत्यादि सिद्धान्तों पर आदि अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ लिखे है। इन गहन एवं विस्तृत विवेचन किया गया है । इस पर स्वोपज्ञ सब ग्रन्थों का परिमाण लगभग दो लाख इलोक-प्रमाण अलंकार-चूडामणि नामक वृति एवं विवेक नामक है। समग्र भारतीय साहित्य में इतने विशाल वाद् मय का व्याख्या है। निर्माण करने वाला अन्य आचार्य दुर्लभ है। हेमचन्द्र की छन्दानुशासन-हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन और काव्याइसी प्रतिभा एवं ज्ञान-साधना से प्रभावित होकर विद्वानो नुशासन की रचना करने के बाद छन्दानुशारान लिखा है। ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि से विभूपित किया। इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रश के छन्दों का सर्वांगीण हेमचन्द्र सूरि का जन्म विक्रम संवत् ११४५ की परिचय है। इस पर छन्दयन डामणि नामक स्वोपज्ञ वृत्ति कार्तिकी पूर्णिमा को गुजरात के धका ग्राम में हुआ था। भी है। इनका बाल्यावस्था का नाम चागदेव था। ११५४ में ये व्याधयमहाकाच्य-इस काव्य की रचना आचार्य ने देवचन्द्र सूरि के शिष्य बने एवं इनका नाम सोमचन्द्र रखा अपने व्याकरण ग्रन्थ शब्दानुशासन के नियनों को भापागत गया। देवचन्द्रसूरि अपने शिष्य के गणो पर बहुत प्रसन्न प्रयोग मे समझाने के लिए की है। जिस प्रकार शब्दानुथे एवं सोमचन्द्र की विद्वाना से अति प्रभावित थे। अतः । शासन संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में विभक्त है, उसी उन्होने अपने सुयोग्य शिष्य का ११६६ की वंशाख शुक्ल प्रकार यह महाकाव्य भी सस्कृत और प्राकृत दोनो भाषातृतीया को आचार्यपद प्रदान कर दिया। सोमचन्द्र के ओं में है। इसके २८ सर्गों में से प्रारम्भ के २० सर्ग शरीर की प्रभा एवं कान्ति स्वर्ण के समान थी, अतः उनका संस्कृत में है जो संस्कृत-व्याकरण के नियमों को उदाहृत नाम हेमचन्द्र रखा गया। वि० मवत् १२२६ में हेम करते हैं तथा अन्तिम ८ सर्ग (कुमारपाल चरित) प्राकृत मे है जो प्राकृत-व्याकरण के नियम उदाहृत करते हैं । इस चन्द्र का निधन हुआ। द्वयाश्रय काव्य के दो प्रयोजन हैं : एक तो व्याकरण के हेमचन्द्रविरचित विविधविषयक ग्रथों का संक्षिप्त नियमो को समझाना और दूसरा गुजरात के चौलुक्यवंश परिचय इस प्रकार है : का इतिहास प्रस्तुत करना। इस ऐतिहासिक काव्य में शब्दानुशासन-यह व्याकरण शास्त्र है। इस पर चौलुक्यवंश का और विशेषतः उस वंश के नृप सिद्धराज स्वोपज्ञ लघुवृत्ति, बहुत्ति , बहन्यास, प्राकृतवृत्ति, ___ जयसिह और कुमारपाल का गुणवर्णन किया गया है। लिंगानुशासन सटीक, उणादिगण विवरण, धातुपारायणविवरण आदि हैं। ग्रन्थकार ने अपने पूर्ववर्ती व्याकरणों त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित-इस चरित्र-ग्रन्थ में जैन में रही हुई त्रुटियों से रहित सरल व्याकरण की रचना की परम्परा के ६३ शलाकापुरुषों अर्थात् महापुरुषों का काव्या
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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