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________________ ६४, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त समाज के अन्य व्यक्तियों के मन में दुख होता है या या बुद्धि की अवहेलना कर देता है और तर्क का पक्षपाती समाज की शान्ति एवं व्यवस्था भंग होती है या समाज श्रद्धा को केवल मन्ध-परम्परा मान लेता है। किन्तु की यथेष्ट प्रगति में बाधा पड़ती है अथवा समाज के विसी केवल श्रद्धा भाव से या केवल तर्क से किसी तथ्य का मन्य महित की प्राशङ्का है तो अनेकान्त दृष्टि मानव निर्णय करना कठिन है। श्रद्धा का अभिप्राय है मानव के को सन्मार्ग दिखला सकती है। ऐसी दृष्टि वाला व्यक्ति अजित ज्ञान के प्रति विश्वास तथा प्रास्था रखना । यदि अपने मन्तव्य पर प्राग्रह नहीं करता, दूसरों के हृदय को मानव जाति ने केवल इतना ही किया होता तो सभ्यता समझने का भी प्रयास करता है और मानवता-विरोधी भोर संस्कृति का विकास उत्तरोत्तर नहुमा होता। दूसरी मन्तव्य या पाचरण से विलग हो जाता है। प्रोर, केवल तर्क का क्षेत्र भी अत्यन्त सीमित है। वह प्राध्यात्मिक दृष्टि से भी अनेकान्तवाद स्वीकार्य ही प्रत्येक व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति, योग्यता और संस्कारों है। तत्त्वज्ञान या प्रात्मज्ञान प्रादि को प्राय सभी दर्शनों पर निर्भर है। किञ्च, मानव जाति के अजित ज्ञानने दुख-निवृत्ति या मक्ति का साधन माना है। किन्तु विज्ञान पर प्रास्था रखकर ही तर्क के द्वारा प्रागे बढ़ा जा तत्त्वज्ञान क्या है ? प्रात्मा का स्वरूप क्या है ? इत्यादि सकता है। प्रतः केवल श्रद्धा या केवल नर्क ज्ञान प्राप्ति विषयों मे विविध प्राचार्यों के भिन्न-भिन्म मन है- के अधूरे साधन है नितान्त अपूर्ण है। इनका समन्बय ही 'नेको मनिर्यस्य मत न भिन्नम्'। फिर तत्त्वज्ञान या मानव को समुन्नत कर सकता है। यह समन्वय अनेकान्त पात्मज्ञान कैसे गम्भव है ? इसका उत्तर है अनेकान्त दृष्टि दृष्टि से ही हो सकता है। से । जब जिज्ञासु जन तत्त्व-सम्बन्धो या प्रात्म-सम्बन्धी इस प्रकार, अनेकान्त दृष्टि वेवल तत्त्व निर्णय मे ही विविध वादो को एक ही सत्ता के अनेक पहलू मान ता सहाया नहीं है, यह वह दष्टि है जिसके द्वारा मानव का है, तो उन विवादों में उलझा नहीं रहता, वह तो माधना जीवन शान और सुखी हो सकता है, जिममे मनुष्य के मे मग्न होकर सत्य की खोज में तत्पर रहता है। पारस्परिक विवादो, सामाजिक संघपों का अन्त हो सकता ___ अनेकान्त दृष्टि का मनोवैज्ञानिक महत्त्व भी है। है। इन अनेकान्त दृष्टि का निरूपण करके भगवान् पानव-मन श्रद्धा और तक दोनों से युक्त है। किसी समय महावीर ने मानव जाति का महान् कल्याण किया है। श्रद्धा का भाव प्रबल होता है तो किसी समय तक की कुरुक्षेत्र विद्यालय, प्रवृत्ति उग्र हो जाती है। श्रद्धा से प्राप्लावित जन तक कुरुक्षेत्र हरियाणा) 000 (पृष्ठ ६० का शेषांश) खाते । तुक के प्राग्रह से कबि ने छंदो के पदान्त हकार, शब्द दृष्टव्य है -कितला. घरना, थई, मूकी, मोकलस्यां, इकार एव प्रकार रूप में कर दिये है। नगरनो, एतलू, वीजी, पामी, जूवा, मोकलई इत्यादि। इन प्रेमाख्यानो की भाषा मध्यकाल में प्रचलित इस प्रकार कुशललाभ के प्रेमाख्यानक काव्य मध्यलोक भाषा राजस्थानी है, जिसे विद्वानों ने 'जूनी गुजराती' कालीन राजस्थानी सस्कृति एवं साहित्यिक प्रवृत्ति के अथवा प्राचीन राजस्थानी कहा है। यह राजस्थानी- जीवन्त प्रतीक है। उनमे प्रकृति का खुलकर उपयोग हुमा व्याकरण सम्मत, गुजराती शब्दों और विभक्तियों की है। यह प्रयोग उद्दीपन को अपेक्षा प्रालंबन रूप में ही बहुलता लिये हुए है । इसका प्रमुख कारण गुजराती और अधिक हो पाया है। राजस्थानी भाषा का एक ही मूल शौरसेनी प्राकृत से प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, उद्गम तथा मध्यकाल में गुजरात और राजस्थान की जनता महाविद्यालय (कु० क्षे० वि० वि० भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता का होना है। ऐसे कुछ से संबद्ध), बावल (हरियाणा)
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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