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________________ जैन कला : उद्गम और आत्मा D डा. ज्योतिप्रसाद जैन, ललनऊ जैन धर्म का उद्देश्य है मनुष्य की परिपूर्णता अर्थात् वह प्राध्यात्मिक चिन्तन एवं उच्च प्रात्मानुभूति की प्राप्ति संसारी प्रास्मा की स्वयं परमात्मत्व में परिणति । व्यक्ति में निमित्त है। मे जो अन्तनिहित दिव्यत्व है उसे स्वात्मानुभति द्वारा विभिन्न शैलियों और युगों की कला एवं स्थापत्य की अभिव्यक्त करने के लिए यह धर्म प्रेरणा देता है और कृतिया समूचे देश में बिखरी है, परन्तु जैन तीर्थ स्थल सहायक होता है । सामान्यत: इस मार्ग में कठोर अनु- विशेष रूप से, सही प्रर्थों में कला के भडार हैं ; और एक शासन, प्रात्मसयम, त्याग सौर तपस्या की प्रधानता जैन मुमुक्ष का प्रादर्श ठीक वही है, जो 'तीर्थयात्री' शब्द है। किन्तु एक प्रकार से कला भी 'दिव्यत्व की प्राप्ति का से व्यक्त होता है. जिसका अर्थ है ऐसा प्राणी जो और उसके साथ एकाकार हो जाने का पवित्रतम साधन सांसारिक जीवन में अजनबी की भांति यात्रा करता है। है', और कदाचित् यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा वह सांसारिक जीवन जीता है, अपने कर्तव्यो का पालन कि 'धर्म के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि मे यथार्थ कला- और दायित्वों का निर्वाह सावधानीपूर्वक करता बोध जितना अधिक सहायक है उतना अन्य कुछ नही।' है, तथापि उसकी मनोवृत्ति एक अजनबी दृष्टा या संभवतया यही कारण है कि जनों ने सदैव ललित कलाओं पर्यवेक्षक की बनी रहती है। वह बाह्य दृश्यों से अपना के विभिन्न रूपों और शैलियों को प्रोत्साहन दिया। एकत्व नहीं जोड़ता और न ही सांसारिक सम्बन्धो और कलाए निस्संदेह, मूलतः धर्म की अनुगामिनी रही किन्तु पदार्थों में अपने पाप को मोहग्रस्त होने देता है। वह एक उन्होंने इसकी साधना की कठोरता को मृदुल बनाने मे ऐसा यात्री है जो सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यग्चारित्र भी सहायता की। धर्म के भावात्मक, भक्तिपरक एव के विविध मार्ग का अवलम्बन लेकर अपनी जीवनयात्रा लोकप्रिय रूपों के पल्लवन के लिए भी कला स्थापत्य की करता है, और अपनी प्राध्यात्मिक प्रगति के पथ पर तब विविध कृतियों के निर्माण की प्रावश्यकता हुई, अतः उन्हें तक बढ़ता चला जाता है जब तक कि वह अपने लक्ष्य वस्तुतः सून्दर बनाने में श्रम मोर धन की कोई कमी नही अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति नही कर लेता। वास्तव मे, की गयी। जैन धर्म की प्रास्मा उसकी कला में स्पष्ट रूप जैन धर्म के पूजनीय या पवित्र स्थान को तीर्थ (घाट) से प्रतिबिम्बित है। यह यद्यपि बहुत विविधतापूर्ण और कहते हैं क्योंकि वह दुःखों और कष्टों से पूर्ण संसार को वैभवशाली है परन्तु उसमें जो शृंगारिकता, अश्लीलता या पार करने में मुमुक्ष के लिए सहायक होता है और सतहीपन का प्रभाव है, वह अलग ही स्पष्ट हो जाता है। निरन्तर जन्ममरण के उस भ्रमण से मुक्त होने में भी वह सौंदर्यबोध के भानन्द की सृष्टि करती है पर उससे सहायता देता है जो इस सहायता के विना कभी मिट कहीं अधिक, सशक्त, उत्प्रेरक प्रौर उत्साहवर्धक है और नहीं सकता। यही कारण है कि जैन तीर्थयात्रा का मात्मोत्सर्ग, शांति और समत्व की भावनामों को उभारती वास्तविक उद्देश्य प्रारमोत्कर्ष है । कदाचित् इसीलिए जनों है। उसके साथ जो एक प्रकार की प्रलौकिकता जुड़ी है, ने अपने तीर्थक्षेत्रों के लिए जिन स्थानों को चुना, बे पर्वतों
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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