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________________ जन दर्शन को अनुपम देन : अनेकान्त दृष्टि और कारण ये दोनों एक दृष्टि से भिन्न हैं और दूसरी किसी रूप में समन्वय और सह-मस्तित्व की भावना का से भिन्न भी हैं । जब हम दोनों को अभिन्न रूप में देखते प्रादर किया है। इस भावना का बीज वेदों तथा उपहै तो कुण्डल को सुवर्ण से अभिन्न समझते हुए (या कहिये निषदों में विद्यमान है । यह ऊपर दिखलाया जा चुका है। सुवर्ण का परिणाम या रुपान्तर मानते हुए) उत्पत्ति से पूर्व वेदान्त के 'अनिर्वचनीयवाद' में, बुद्ध के 'मव्याकृतबाद' में भी सुवर्ण में कुण्डल को सत् कहने लगते हैं, अथवा सुवर्ण तथा उत्तरवर्ती विभज्यवाद और सांस्य की में कुण्डल रचना की शक्ति है, इसी शक्ति की दृष्टि से नित्यता में इस समन्वय-भावना के संकेत मिलते हैं। कुण्डल को उत्पत्ति से पूर्व सत कह दिया जाता है। न्यायसूत्रों में भी नितान्त एकान्तवादियों के मतों का दूसरी दृष्टि मे सुवर्ण से कुण्डल भिन्न है। यदि भिन्न न निराकरण करके दृष्टि-भेद की ओर संकेत किया गया होता या पहले से ही सुवर्ण में कुण्डल विद्यमान होता तो है। फिर भी अनेक प्राचार्यों ने जो जनदर्शन के अनेकान्तसुवर्णकार उसे बनाने के लिये प्रयत्न क्यो करता? अतः वाद का जोरदार शब्दों मे खण्डन किया है उसके पीछे कहा जाता है कि कुण्डल प्रादि कार्य सुवर्ण मे असत् है। तत्कालीन प्रवृत्ति ही कही जा सकती है । वादों के विवाद इस प्रकार, दो विरुद्ध धर्म सत्त्व तथा असत्त्व युगपत् एक मे प्रतिपक्षी के मत का खण्डन करना और अपने सम्प्रदाय कुण्डल मे रहते है। दृष्टि भेद से सत् और असत का के युक्त या प्रयुक्त मत का प्रतिपादन करना मतवादी समन्वय करने पर तत्त्व का यथार्थ-बोध होता है। अपना कर्तव्य समझता था। अन्य दर्शनों के प्राचार्यों ने सिद्धसेन दिवाकर बतलाते है कि सदवाद और प्रसद्वाद ही नही, अनेकान्तवाद के पोषक प्राचार्यों ने भी इसी दोनो अनेकान्त दष्टि से नियमित हो तभी सर्वोत्तम प्रवत्ति का अनुमरण किया था। यदि सभी मतवादी सत्य सम्यग्दर्शन बनत है, क्योकि एक-एक व्यस्त होकर वे दोनों की खोज को लक्ष्य करके एक तत्त्वान्वेषी की भाति दूसरे संमार के दुख से मक्ति नही साधते।' की दष्टि का भादर करते तो सत्य के विवेचन में अधिक अनेकान्तवाद को संशयवाद कहकर भी इसका खण्डन सफल होते। किया गया है। यह ठीक है कि अनेकान्तवाद को स्याद् अनेकान्तवाद का मिद्धान्त तत्त्व विबेचन मे ही सहावाद से पृथक् नही किया जा सकता; किन्तु स्यावाद मे यक नहीं है, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपजो 'स्यान' शब्द है वह क्रियापद नही है और उसका अर्थ योगिता है । इसका व्यावहारिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक यह नहीं है-ऐसा भी सम्भव है। वस्तुतः यहा 'स्याद्' तथा प्राध्यात्मिक महत्व है। व्यावहारिक दृष्टि से यह शब्द अव्यय है, जिसका अर्थ है 'किसी प्रकार (कथञ्चित)। अनेकान्तवाद बहुत से विवादो और झगड़ों से मानवप्रत: 'स्यादस्ति' का अर्थ है 'वस्तु किसी प्रकार किमी समाज को बचा सकता है। विरोधी के विचारो के प्रति दृष्टि से है। इसी प्रकार, 'स्यान्नास्ति' का अर्थ होगा सहिष्णुता का भाव यदि प्रत्येक मानव में होगा तो 'वस्तु किसी दृष्टि से नही भी है। एक ही वस्तु में वृष्टि विवाद-प्रस्त विषयों में दूसरे के पक्ष को समझकर उसे भेद या अवस्था-भेद के अनुसार भाव और प्रभाव का । सुलझाने की प्रवृत्ति स्वय ही हो जायेगी। हमारे अनेक निर्णय किया जा सकता है, यह अभी ऊपर बतलाया गया विवादों, वैमनस्यों और मत-भेदों का मूल है दूसरे के है। प्रतः स्याद्वाद या अनेकान्तवाद संशयवाद नहीं है भाव को न समझना या विरोधी के विचारो के प्रति पोर न यह प्रज्ञानवाद ही है। वस्तुतः यह वाद वस्तु सहिष्णुता न रखना। के स्वरूप का निश्चयात्मक रूप में ही विवेचन करता है धार्मिक विवादों से बचने के लिये भी अनेकान्त और साथ ही विविध भाचार्यों के विरोधी वादों का दृष्टि उपयोगी है। धर्मसहिष्णुता का भाव रखकर ही भनेकान्त दृष्टि से समन्वय भी करता है। विविध सम्प्रदाय एक दूसरे के साथ सुख-शान्ति से रह भारतीय दर्शन के प्रायः सभी सम्प्रदायों ने किसी न सकते हैं। यदि किसी के तथाकथित धामिक माचरण से १. द्र०, सन्मतिप्रकरण, ३.५.१ ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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