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सम्पादकीय
प्राच्य-विद्या-महार्णव, सिदान्ताचार्य एवं सम्पादका- उच्च कोटि की कविता भी की। उनकी "मेरी भावना" चार्य स्व. पं. जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' को तो प्रत्यन्त लोकप्रिय हुई है। अपने अन्तिम समय में भी दिवंगत हुए गत २२ दिसम्बर १९७७ को १ वर्ष हो गये वह हेमचन्द्रीय योगशास्त्र की एक विरल दिगम्बर टीका, पौर दसवां प्रारम्भ हो गया। साथ ही उसके दो दिन पूर्व अमितगति के योगसार प्राभूत के स्वोपज्ञ भाष्य तथा मार्गशीर्ष शुक्ल १०, दि० २० दिसम्बर, १९७७ को उनकी कल्याणकल्पद्रुम स्तोत्र पर मनोयोग से कार्य करते रहेजन्म शताब्दी पूरी हुई थी।
६० वर्ष की प्रायु मे। वर्तमान शती के प्रारम्भ से लगभग ७० वर्ष पर्यन्त जिस विषय पर और साहित्य के जिस क्षेत्र में भी श्रद्धेय मुख्तार साहब ने जैन स कृति, साहित्य पोर समाज मुख्तार साहब ने कदम उठाया, बड़ा ठोस कदम उठाया। की तन-मन-धन से एकनिष्ठ सेवा की थी। अपने इस जैन जगत मे साहित्येतिहासिक अनुसधान में वे अपने सुदीर्घ कार्यकाल में उन्होने समाज की अनवरत महती समय मे प्रायः सर्वाग्र ही रहे और नए विद्वानों का मार्ग संवा की और विपुल साहित्य का सजन किया। उनका दर्शन किया। पत्र-सम्पादन कला मे तो उनके स्तर को साधना क्षेत्र पर्याप्त विशाल एव विविध रहा ।
शायद कोई अन्य जैन प्रभी तक पहुंच ही नहीं सका है, समन्तभद्राश्रम तथा वीर सेवा मन्दिर जैसी सस्थायो और पुस्तक समीक्षा तो वैसी कोई करता नही। अपने की प्रारम्भ मे प्रायः अपने ही एकाको बलबूते पर समय मे समाज मे उठने और चलने वाले प्रायः सभी उन्होंने स्थापना की और जैन गजट, जन हितषी एव सुधारवादी या प्रगतिगामी आन्दोलनों में उनका प्रत्यक्ष अनेकान्त जैसी पत्र-पत्रिकाओं का उत्तम सम्पादन किया। या परोक्ष योग रहा । कुरीतियो और भ्रान्त घारणामों के अनेकान्त तो स्वय उनकी ही पत्रिका थी जिसने उनके वे निर्भीक प्रलोचक थे। श्रीमत हो या पडित, मुनि हो सम्पादकत्व में जैन पत्रकारिता के क्षेत्र मे प्रायः सर्वोच्च या गृहस्थ, किसी के विषय मे भी खरी बात कहने में मान स्थापित किया। मुख्तार साहब ने अनेक शास्त्र- वे नही चूकते थे। भडारों मे से खोज-खोज कर कितने ही महत्वपूर्ण प्राचीन मुख्तार साहब स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त एवं प्रथों का उनकी जीर्ण शीर्ण पांडलिपियो पर से उद्धार अध्येता थे। स्वामी के हृदय को जितना और जैसा किया, संशोधन किया और उनमें से कई को सुसम्पादित उन्होने ममझा वसा शायद माधुनिक युग के विद्वानों में करके प्रकाशित किया। पुरातन जैन-वाक्यसूची, जनग्रन्थ- से अन्य किसी ने नही समझा। अपने अन्तिम वर्षों में प्रशस्ति संग्रह, जैन लक्षणावली जैसे प्रतीव उपयोगी ९०.६१ वर्ष का वह वृद्ध साधक एक अद्वितीय समन्तभद्र सदर्भ ग्रन्थ तैयार किये और कराये। कई ग्रथों के अद्वि- स्मारक की स्थापना का तथा 'समन्तभद्र' नामक प्रकाश तीय अनुवाद भाष्य प्रादि रचे और ग्रथों की मान पत्र द्वारा प्राचार्यप्रवर समन्तभद्र के विचारो का विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी। अनेक प्रचार-प्रसार देश-विदेश में करने का स्वप्न देखता रहातथाकथित प्राचीन ग्रंथों के मार्मिक परीक्षण लिख उसका वह स्वप्न चरितार्थ न हो सका। कर और प्रकाशित करके उनकी पोल खोली। कई अन्य
अपनी जन्मभूमि सरसावा में मुख्तार साहब ने एक लेखकों की नवप्रकाशित कृतियों की गंभीर एवं विस्तृत विशाल वीर सेवा मदिर भवन का निर्माण कराया था। समालोचनाएं कीं। उनके अधिक उपयोगी लेख-निबधों उनके द्वारा संस्थापित 'वीर सेवा मंदिर' संस्था दरियागंज, में से लगभग डेढ़ सौ तीन सग्रहों में प्रकाशित हो चुके है। दिल्ली में अपने निजी चौमजने भवन मे चल रही है। मुख्तार साहब ने हिन्दी एवं संस्कृत, दोनों ही भाषामों में उनका 'भनेकान्त' भी वहीं से त्रैमासिक के रूप में प्रका