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________________ जैन ध्वज स्वरूप और परम्परा [यह घोषपूर्ण संगवेणा एवं सत्यानुसंधान की दृष्टि से जैन विषय में सप्रमाण तकं घोर सुसंगत प्राधार सामग्री प्रस्तुत किया जाना अभीष्ट है । -सम्पारक [ तीर्थंकर महावीर के में उपलब्ध उपलब्धियों में की उपलब्धि युग तक के निर्माण व प्रचार में सहायक महाशक्तियों को भुलाया नहीं धन्यवादाई रहेंगे। २५०० में निर्वाण के उपलक्ष्य पंच-वर्ण के सामाजिक ध्वज स्मरणीय रहेगी धौर ध्वज प्रथक यत्न करने वाली जा सकेगा। सभी भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात् जैसे धार्मिक मान्यताम्रों में दृष्टि-भेद हुए - श्रनेक पथ बने, वैसे ही उसके पंच-गत-ध्वज भी भिन्न-भिन्न रूपों में निर्मित होने लगे । यहाँ तक कि किसी पथ के ध्वज का कोई निश्चित एक रूप भी नहीं रह गया जिसने जैसा चाहा, तब सा ही ध्वज, धर्म ध्वज के नाम से फहरा दिया। श्रीर यह सब हुआ तब, जब लोगों की दृष्टि से धर्म का मून महत्व तिरोहित हो गया या लोगो ने धर्म ध्वज को अपनीअपनी मान्यताओं और पथ-विशेषों का ध्वज स्वीकार करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी या देवी-देवताम्रो की उपासना का बाहुल्य हो गया । पं० पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली के वास्तविक स्वरूप परम्परा के करता है। छतः इस पर इसी दृष्टि से विचार 1 यदि किसी एक रूप मे निश्चित मान्य हो तो पयविशेष का निश्वित एक ध्वज होना कोई बुरी बात नहीं । पर यहाँ तो एक ही पक्ष के लोग कमी इकरंगा तो कभी दुरंगा तिरंगा यां कई-कई रंग का ध्वज फहराने लग गये ये इससे जहां किसी पंच-विशेष में ध्वज-संबन्धी अस्थिरता रही वहाँ किसी निश्चित ध्वज के प्रभाव में यह पंप-प्रदाय दूसरों की दृष्टि में अपने व्यावहारिक रूप का बोध कराने मे भी असमर्थ हो गया । अर्थात् ध्वज को देखकर कोई नहीं पहिचान सकता कि ये मनुक समाज-पथ या सम्प्रदाय के लोग हैं या यह उनका ध्वज है । यदि ध्वज का एक ही निश्चित रूप मान्य होता तो ध्वज देखकर सहज ही ज्ञान हो जाता कि यह प्रमुक पंथ का ध्वज है । उदाहरणार्थ -- जैसे चक्रयुक्त तिरंगा भारत का पौरव वाला तिरंगा काँग्रेस पार्टी का सहज-बोध करा देते हैं । हमारे ध्वज के विषय में ऐसा कुछ नहीं रह गया था। सामाजिक नवीन ध्वज की निश्चिति के संबन्ध मे मैं स्व० साहु श्री शान्तिप्रसाद जी जैन के इस कथन से पूर्ण सहमत हूँ कि 'मुझे इस बात की बहुत प्रसन्नता हैं कि सभी के आशीर्वाद से समग्र जैन समाज के एक ध्वज एवं एक प्रतीक का निर्णय हो गया ।" महावीर स्मारिका (प्रेम ७४) पृ० २५ ध्वज के पाँच रगों को प्रणुव्रत महाव्रत प्रादि का द्योतक मानना जैसी नई दिशायों की कल्पनाएं भी सुखद और प्रशस्त हैं इनसे सदाचार प्रचार को बल ही मिलेगा। ऐमी नवीन कल्पनायें होती रहना, मानव के सद्भावों को जाग्रत करने में पूर्ण सहायक होती है । मैं इनका स्वागत करता हूँ और निश्चित किए गए पंच-वर्ण-ध्वज का सामाजिक दृष्टि से सम्मान करता हूँ। जैनों के सब पंथों ने मिलकर ध्वज का एक रूप ( पंचवर्णवाला) स्वीकार कर प्रशस्त प्रयास ही किया है। I अब रही बात पंचरंगे ध्वज को जैन धर्म की प्राचीनता से जोडने और इसे पूर्व से प्रचलित जैन-धर्म का ध्वज सिद्ध करने की सो, इसके लिए शास्त्रों के प्रमाणों को एकत्रित करने में धम की मावश्यकता है। यह खोजना भी यत्न-साध्य है कि- जिनधर्म के ध्वज का प्राचीन रूप क्या है ? मुझे अभी तक एक-दो सज्जनों -
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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