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मेघविजय के समस्यापूर्ति काव्य
किरात समस्या लेख
इस काव्य का उल्लेख विद्वानो ने अपने निबन्धों में किया है। यह जगत्प्रसिद्ध भारवि के काव्य किरातार्जु - नोयम् की समस्यापूर्ति है इसकी एक प्रति माचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि के पास थी उन्होंने प्रेस कापी भी तैयार शान्तिनाथचरित की थी, किन्तु मिली नहीं। वह भी एकसर्गात्मक थी, पूरी नहीं ।"
देवानन्द महाकाव्य
था ।
देवानन्द महाकाव्य कवि का अनुपम समस्यापूर्ति काव्य है । माघ कवि के शिशुपालवध की समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गये इस काव्य में श्री विजयदेव सूरि का चरित्र वर्णित है, धानुषङ्गिक रूप से विजयप्रभसूरिजी का वृत्तान्त निबद्ध है । यह काव्य सं० १७२७ में मारवाड़ के सादड़ी नगर में विजयादश्मी के दिन पूरा हुआ १७ सप्तगत्मिक इस काव्य में कुल ७१६ पद्य है । यद्यपि काव्य में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से चरित वर्णित है तथापि इसमें काव्यत्व प्रधान है। इस काव्य में माघ के शिशुपालवध काव्य से साम्य है- माघ कवि का मुख्य विषय कृष्ण वासुदेव द्वारा शिशुपालयम है। मेघविजय ने भी अपने काव्य का नायक वासुदेवकुमार को चुना जो बाद मे विजयदेवसूरि श्राचार्य बनते हैं । कृष्ण को दिल्ली जाना पड़ा था, इसके नायक को भी दिल्ली के जहाँगीर
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१५. श्री प्रगरचन्द नाहटा, जैन पादपूर्ति साहित्य | १६. दिग्विजय महाकाव्य की हिन्दी भूमिका | १७. मुनिनयन पश्य इन्दुमिते वर्ष हर्ष सादड़ी नगरे ग्रन्थः पूर्णः समजनि विजयदशम्यामिति श्रेयः ॥ - देवानन्द म० प्रशस्ति
दह
बादशाह के पास जाना पड़ा था। रंवतक गिरि का दोनों काव्यों में समान वर्णन है। काव्य में शिशुपालवध काव्य के मात्र सात सर्गो के श्लोकों के अन्तिम पाद को समस्या बनाकर पूर्ति की गई है।
१८. १.७१
१६. वही, १.१२ तथा ७.७८
२०. इतिथी ची महाकाव्य समस्यायां महामहोपाध्याय मेघविजयगण पूरिठाया पष्ठः सर्गः ।
-- शान्तिनाथचरित प्र० सर्वसमाप्ति
मेघविजय समस्यापूर्ति काव्यों में इसका विशेष स्थान है, क्योंकि प्रथम सगं के प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरणको समस्या बनाकर पूर्ति की गई है और नंषध का जो चरण ग्रहण किया गया उसे प्रस्तुत काव्य में उसी चरण के रूप में भावों की संगति के साथ बैठाया गया है। इस काव्य की पूर्ति छः सर्गों मे की गयी है एवं अपरनाम नैषधीय समस्या भी है इसमें शान्तिनाथ प्रभु का चरित वर्णित है, श्रानुषङ्गिक रूप में विजयप्रभ का वर्णन है। इसमें ५६० श्लोक है ।
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यह काव्य काव्यत्व प्रधान है और भाव-साम्य परि सा है। श्रीहर्षचरित के प्रत्येक सर्ग के अन्त में अपना वशगत परिचय दिया है । प्रस्तुत काव्य में कवि ने अपनी गुरुपरम्परा का वर्णन किया है।"
संयोग है कि श्रीहर्ष के पिता का नाम हीरा और काव्यकार की परम्परा के श्राद्य-संस्थापक का नाम भी हीरविजय था। अतएव काव्य मे नेपधीयचरित के प्रथम सर्ग का प्राद्यन्त समस्या-रूप में निर्वाह कृपा है। २१. यदीयपादाम्बुजभक्तिनिर्भरात्,
प्रभावतस्तुल्यतया प्रभावतः । नलः सितच्छत्रित कीत्तिमण्डलः,
क्षमापतिः प्रायशः प्रराम्यताम् ॥ बही १.११
२२. अयं दरिद्रो भवितेति वैधसी,
क्रियां परामृश्य विशिष्य जापतः । विधेः प्रसत्यास्ववदान्यताकृते, नृपः सदार्थी भविते
२३. वही, ६६२
॥ -- वही, १.५०