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८८, वर्ष ३०, कि० ३.४
भनेकान्त
माघः सान्निध्यकृद् भपाद् मल्लिनाथस्तथक्ष्यताम् । परतन्त्र रहता है । भावों की स्पष्टता कम होती है। इस हास्येन मम दास्येऽस्मिन् यथाशक्त्युपजीविते ।। कार्य में स्वतन्त्र काव्य-निर्माण की अपेक्षा अधिक श्रमप्रस्या न मधुरा वाचो नालंकारा रसाबहाः। साध्य एवं प्रौढ़ पाण्डित्य की अपेक्षा होती है। बन्धन के पूर्वसंगतिरेवास्तु सतांपाणिग्रहश्रिये ॥' कारण कवि अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा का उपयोग कम कर
पाता है। कुछ ही विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न कवि दूसरों के मेषविजयगणि ने महाकवि कालिदास विरचित मेध
काव्यों के पदों तथा भावों का अपने भावों के साथ दूतम् के प्रत्येक पद्य के अन्तिम चरण को समस्या-रूप में
सामञ्जस्य स्थापित कर पाते है । उन्हीं में मेघविजयगणि स्वीकार करके 'मेघदूतसमस्यालेख', भारवि के किरातार्जु
पाते हैं । इनके समस्यापूर्ति काव्य इसके प्रमाण है । नीयम् को समस्या बनाकर 'किरातसमस्यालेख', महाकवि माघ के शिशुपालवध के सात सगों के प्रायः अन्तिम
मेघदूतसमस्यालेख चरण को समस्या बनाकर 'देवानन्द महाकाव्य' तथा श्रीहर्ष
'मेघदूतसमस्यालेख' विज्ञप्ति-पत्र के रूप में लिखा गया के नैषधीयचरित के प्रथम सर्ग के सम्पूर्ण नोकों के प्रति.
है। इस काव्य की रचना महाकवि कालिदास विरचित चरण को समस्या मानकर शान्तिनाथचरित नामक काव्य
'मेघदूतम्' के प्रत्येक श्लोक के अन्तिम चरण को समस्या की रचना की।
मानकर की गयी है। समस्यापूर्ति शब्द समस्या और पूति का सयोग है।
___ कालिदास ने रामगिरि पाश्रम में स्थित किसी विरही इसमें पूर्ति शब्द का अर्थ पूर्णता है। समस्या का अर्थ
यक्ष का सन्देश प्राषाढ़ मास के प्रारम्भ में मेघ को दूत कठिनाई या परेशानी है। यह परेशानी भी व्यक्ति के
बनाकर उसकी कान्ता के पास अलकापुरी भेजने की लिए परीक्षा होती है। वैसे ही काव्य क्षेत्र मे किसी
कल्पना मे मेघदूत की रचना की। उसी प्रकार विजय सार्थक शब्द, पद अथवा पाद को समस्या के रूप में कवि
ने चातुर्मास के प्रथम प्राषाढ़ मास में अपना सन्देश श्री की शक्ति-परीक्षणार्थ अर्थसंगत रीति से पूरा करने के
विजयप्रभसूरि के पास देवपाटण भेजने के लिए मेघदूत. लिए प्रस्तुत किया जाता है। कवि अपने मनोगत प्रर्थ व
समस्यालेख की रचना की है। कवि ने नव्यरंगपुरी भावों की उस पाद अथवा पद के साथ सगति बैठाकर
(ोरङ्गाबाद) से देवपाटण सन्देश भेजा था। मेघदूत में पद्य की पूर्ति करता है। इसी को समस्यापूर्ति कहते है।
रामगिरि से अलकापुरी तक के मार्ग में विविध नगर, अमरकोश में भी कहा गया है कि
पर्वत, नदी, प्रादि रम्य स्थानों का वर्णन है और फिर "या समासार्था पूरणीयार्था कविशक्तिपरीक्षणार्थम् अलकापुरी में स्थित यक्षिणी प्रादि का वर्णन किया है। अपूर्णतयव पठ्यमानार्था वा सा समस्या ।".
इसी प्रकार इस काव्य मे नव्यरगपुरी से देवपाटण के मार्ग एक स्थिति मौर है जब कवि भिन्न अभिप्राय वाले के मध्य देवपर्वत तथा नगरी, एलोर पर्वत, तुंगिला पर्वत, प्रघरे पद्य की भिन्न अभिप्राय वाले अपने भावो के साथ तापी नदी, नर्मदा, मही प्रादि नदियों, शत्रुञ्जय पर्वत, संगति बैठाकर अर्थपूर्ति करता है । यह भी समस्यापूर्ति है।" सिद्धर्शल, जैनमन्दिरों, द्वीपपुरी (देवपाटण) में स्थित
समस्यापूति मे पूरणीय चरण के शब्दों को परिवर्तित विजयप्रभसरि४ गुरु का तथा साथ में उस नगरी का भी न कर अर्थ की पूर्ति करनी होती है, प्रतएव इसमे कवि वर्णन किया है।
६. देवानन्द महाकाव्य प्रशस्ति. १०. अमरकोश, टीका १.६७. ११. शब्दकल्पद्र म, पञ्चमकाण्ड, पृ० २७०.
१२. मेघदूतसमस्यालेख, १ १३. वही, ३४ १४. वही, ६२