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________________ मेघविजय के समस्यापूर्ति काव्य 0 श्री श्रेयांसकुमार जैन प्राचीन ऋषियों, मनीषियों, प्राचार्यों तथा कवियों ने विजयप्रभसूरि ने इन्हें 'वाचक" (उपाध्याय) पद से अपना परिचय देश, काल, कुल मादि की दृष्टि से समलंकृत किया था। इनकी न्याय', व्याकरण', साहित्य', अनावश्यक समझ कर नहीं दिया या अस्पष्ट रूप में ज्योतिष', अध्यात्म' मादि से सम्बन्धित भनेक रचनाएँ अत्यल्प प्रमाण में दिया है। उनका एकमात्र लक्ष्य या कि सम्प्रति समुपलब्ध हैं। उपाध्यायजी ने साहित्य-साधना लोग गुणों को ग्रहण करें। इस कारण वे न तो अपनी का प्रारम्भ वि० सं० १७०६ में 'विजयदेवमाहात्म्यविवरण' प्रशस्ति पसन्द करते थे और न अपने वैशिष्ट्य बोध केही नामक टीका से किया और उनकी अन्तिम रचना है भूखे थे। इसी परम्परा मे बहुश्रुत, बहुमुखी प्रतिभा के पाण्डित्यपूर्ण शब्दवविध युक्त प्रत्येक पद के सात-सात धनी, गम्भीर साहित्य साधक, अनेक शास्त्री के प्राज्ञ अर्थ निष्पन्न करने वाली समलकृत सप्तमन्धान महाकाव्य पण्डिन, ज्योतिष व्याकरण-दर्शन प्रादि परस्पर निरपेक्ष जो वि० स० १७६० में पूरी हुई। शारों के वेता महोपाध्याय मेघविजयमणि भी प्राते है, मेषविजयगणि की प्रतिभा और पाण्डित्य मादि का क्योंकि इन्होने अपने वश, समय तथा स्थान प्रादि का विशेष परिचय उनके द्वारा प्रणीत समस्यापूर्ति काव्यों से परिचय देने में संकोच किया। अपनी शिष्य-परम्परा को मिलता है, वोकि कवि की मौलिकता नतन काव्य-सुष्टि भी ऐसा नहीं करने दिया। मे उतनी नहीं निखरी, जितनी पुरानी काव्यसृष्टि को मेघविजयगणि तपागच्छ के प्राचार्य श्री हीरविजय नूतन चमत्कार प्रदान करने मे । कवि प्रकाण्ड पण्डित सूरि की परम्परा में अन्तिम गणमान्य प्रतिभासम्पन्न होते हुए भी अत्यन्त विनम्र है। यह प्रभ्युत्थान युग के प्राचार्य हुए है । यह परमारा-क्रम इस प्रकार है प्रतिनिधि कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष जैसे हीरविजय कवियो की कृतियों को समस्या बनाकर उनके भावों में स्व-भावो का साम्य स्थपित कर नवीन काव्यो का निर्माण कनकविजय करता है। ऐसी महती प्रतिभा से सम्पन्न होते हुए भी विनयावनत होकर माघ प्रादि के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते शीलविजय हुए वह कहता है कि-- नोकः कवितामदस्य न पुनः स्पर्धा न साम्यस्पृहा, कमल विजय सिद्धि विजय चारित्रविजय श्रीमन्माधवेस्तथापि सुगुराम भक्तिरेव प्रिया। कृशविजय तस्यां नित्यरतेः सुते । सुभगा जज्ञे समस्याऽद्भुता, मेघविजय सेयं शारदचन्द्रिकेव कृतिना कुर्याद् दृशाभुत्सवम् ।। १. शान्तिनाथचरित्र के अनुमार । सनसन्धान, भविष्यदत्तकथा, पञ्चाख्यान भादि । २. सत्सेवासक्तचेता अनवरततथा प्राप्त लक्ष्मीविशिष्य। ६. वर्षप्रबोध, रगलशारत्र, हस्तममीवन, उदयदीपिका, शिष्यः श्रीमत्कृपादेविजयपाभूत: सत्कवेर्वाचक श्रीः॥ प्रश्न सुन्दरी, वीसायन्त्र प्रादि । -देवानन्द महाकाव्य प्रशस्ति ३. (क) युक्तिप्रबोध नाटक, (ख) मणिपरीक्षा (ग) ७. मातृकाप्रसाद, ब्रह्मबोध, महद्गीता प्रादि । ___ धर्ममंजूषा । ८. वियद्रसमुनीन्दूना (१७६०) प्रमाणात परिवत्सरे। ४. चन्द्रप्रभा, हैमशब्दचन्द्रिका, हैमशब्दप्रक्रिया। कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्या प्रतिष्ठितः ।। ५. दिग्विजय महाकाव्य, लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, -सप्तसन्धान महाकाव्य, प्रशस्ति " चा : ॥
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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