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जिन पर्जन
करता है, वह भेद विज्ञान को प्राप्त होता है। जब शेर और बहिरंग दोनों प्रकार के पच महाव्रत के स्वरूप को और हाथी का जीव भगवान पार्श्वनाथ और महावीर हो अगर एक दृष्टि में ममझना हो तो वह इस मति मे समझ सकते है तो हम अगर भगवान महावीर बन जावें तो सकता है। इसको समझने में कोई भाषा की जरूरत इसमें क्या प्राश्चर्य है ?
नहीं; जैसे मोटर में जाते हुए अगर भोपू का निशान __ ये पंच परमेष्ठी हमे अपने प्रात्मतत्त्व की खबर देने लगाकर वहा पर क्रास लगाया गया है तो हरेक व्यक्ति उसे वाले है। इनके प्रति जो हमारी भक्ति है, वह वास्तव में अपनी-अपनी भाषा मे समझ लेता है कि यहां भोपू बजाना इनके प्रति नहीं, परन्तु अपनी चेतन प्रात्मा के प्रनि ही मना है। उसे समझने के लिए नि.गी भी भाषा के ज्ञान भक्ति है। जब हनुमान सीता की खबर लेने गये और वो जरूरत नही है। ऐसे ही य: जिनेन्द्र की मूर्ति के खबर लेकर प्राये तब उनका प्रसन्न मख देखकर राम दर्शन मे, जो भाषा का जानकार नही है वह भी पचमहासमझ गये कि खवर लग गई है। तब राम बैठे नही रह व्रत के स्वरूप को-दशलक्षण धर्म के स्वरूप को निश्चय सके, उठकर प्रागे चले और जाकर हनुमान को छाती में और व्यवहार रूप एक माथ समझ गकता है। कहा जाता लगा लिया । यहाँ पर यह अनुराग हनुमान के प्रति नही है कि भगवान उमास्वामी कही नहार लेने गये थे। वहां था, परन्तु यह अनुराग मीता के प्रति था और हनुमान दीवार पर लिखा था दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । उसकी खबर लाया था, इसलिए यह हनुमान के द्वाग प्राचाय न उसके प्राग सम्यक् शब्द जाड दिया। जब श्रावक व्यक्त किया जा रहा था। जैसे कोई पहले कलकत्तं से घर प्राया तो उस शुद्धि को देखकर बहुत प्रसन्न हुप्रा और राजस्थान जाना था तो गाव में कई रोज तक वे लोग उस साधु को खोजने जंगल में गया। वहाँ दोपहर के जिनके सम्बन्धी कलकत्ते रहते थे उसको अपने घर बुलाते
समय भगवान उमास्वामी पाच मी शिष्यों के बीच बैठे थे और उमका बडा आदर सत्कार करते थे। वाम्सव में
दोपहर की सामयिक कर रहे थे। उन्हें दूर से देखकर, वह पादर-सत्कार उमका नही था बल्कि उनके प्रिय जन
यद्यपि उमास्वामी शब्दो मे कुछ नही कह रहे थे, उनके की खबर का था। इसी प्रकार ये पंच परमेष्ठी हमे
स्वरूप को देखकर, उनकी आकृति में ही अन्तरग सम्यक् . अपने चैतन्य स्वभाव की खबर देने वाले है, उनमे भक्ति
दर्शन का स्वरूप समझ पे पा गया। इस प्रकार, अपने दिखाकर उनके माध्यम से हम अपने चैतन्य के प्रति ही
निज स्वभाव को जानकर जब प्रात्मा, ग्रात्मा में अन्तर अनुराग प्रगट कर रहे है।
दृष्टि को प्राप्त होता है तो बाहर में ऐसा रूप रहना है । भगवान की मूर्ति को अगर अच्छे ढग से देखा जाए
जब वह श्रावक इस बात को प्राकृति देखकर समझ तो यह पंच महाव्रत के स्वरूप को दिखा रही है। वह कह
सकता है तो हम जिनेन्द्र की मूर्ति की प्राकृति देखकर रही है कि जो व्यक्ति अंतरग मे अपने निज स्वभाव मे
रत्नत्रय के स्वरूप को क्यो नही समझ मकने । रमण करता है उसके बाहर में इस प्रकार का का रहता मूर्ति की नापाग्रदृष्टि है, वह बहिरंग दृष्टि नही है । है। कोई हिमारूप मन-वचन-काय की क्रिया नहीं रहती। वह दष्टि बना रही है कि बाहर मे कुछ नहीं, बाहर में जो वास्तविक सत्य, त्रिकालक मत्य स्वभाव मे रमण प्रानन्द नही, बाहर से मुख पाने का नही। परन्तु जब करता है, उसके वाहर सत्य और असत्य रूप कोई व्या- यह प्रात्मा शरीर मे भिन्न, शरीर से दष्टि हटाकर अपने पार नहीं रहता, वह दोनों से ऊँचा उठ जाता है। जो मार मे दृष्टि लगात है तो अनुल प्रानन्द को प्राप्त होता निज स्वभाव मे ठहरता है, उसके बाहर मे 'पर' छूट है। अगर हम ग्रानी कमोटी पर दुनिया क मभी भगवानो जाता है। जो निज ब्रह्म की चर्या को प्राप्त होता है को कसकर देने और एम दृष्टि से देखें कि हमे ऐसा उसके बाहर प्रब्रह्म नही रहता, वह उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य को बनना है का, तो हम अपन प्राप जवाब मिल जाएगा। प्राप्त होता है और जो निज प्रात्मनिष्ठ हो जाता है उसके सुख का वास्तविक स्वरूप समझना है नो गह मूर्ति बताती बाहर मे 'पर' का ससर्ग नही रहता। इस प्रकार, अतरग है कि जब स्व का प्राश्रय लेकर, बाहर से दृष्टि हटा कर,