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________________ जैन दर्शन की अनुपम देन : अनेकान्त दृष्टि 0 श्री श्रीनिवास शास्त्री, कुरक्षेत्र जैनदर्शन भारतीय दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान असग है । बुद्धि ही कत्रों है और बुद्धिस्थ सुख-दुःख को है। इसमें अनेक नवीन उद्भावनाएं की गई है। तत्त्व- पुरुष अपना समझ लेता है, यही उसका भोग है; वस्तुतः विवेचन या प्रमाण-मीमांसा के क्षेत्र मे ही नहीं अपितु वह न कर है न भोक्ता है । अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में कैवल्य के स्वरूप और साधन के विषय मे भी जन जीवात्मा माभास मात्र है, वस्तुतः ब्रह्म ही परमार्थ सत् दार्शनिकों ने अनूठी सूझ का परिचय दिया है। जैन दर्शन है। अविद्या के कारण ही जीव मे कतत्व और भोक्तत्व के रत्नत्र से भारतीय दर्शन के पाटक परिचित ही है। की कल्पना कर ली जाती है। इन सब परस्पर विरुद्ध उमा स्वाति ने न तलाया है कि सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान वादों के रहते जीव के वास्तविक स्वरूप का निश्चय तथा मम्यक् चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। करना कठिन है । फिर सम्यग्ज्ञान कैसे होगा? तब तो यहा बतलाये गये सम्यग दर्शन प्रादि तीनों ही जैन- मोक्ष-प्राप्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दर्शन मे रत्नत्रय के नाम से प्रसिद्ध है । ये तीनो मिलकर प्राय: सभी जीव आदि पदार्थों के स्वरूप के विपय में ही मोक्ष के साधन है। इनमें सम्यग दर्शन का स्थान प्रथम विवेचकों का मत भेद दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार है। यह मोक्ष का प्रथम द्वार है। सम्यग् दर्शन क्या है अनेक अन्धे एक हाथी को टटोलते है, कोई उसके घड़ को यह बतलाते हुए उमा स्वाति कहते है कि पदार्थों के स्पर्श करके उसे दीवार सा कहता है और कोई उसके पर यथार्थ स्वरूप के प्रति श्रद्धा न करना हो सम्यग्दर्शन है ।२ को छूकर उसे खम्भे के समान बतलाता है और कोई पूंछ जनदर्शन के विविध प्राचार्यों ने तत्त्वो या पदार्थों का को पकड़कर रस्से के समान कह देता है; यही दशा विवेचन भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। उमा स्वाति के एकान्तवादी विवेचकों की है। जैसे कोई आखो वाला अनुसार जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और सभी अन्धों को एकत्रित करके यह समझा देता है कि तुम मोक्ष-ये सात तत्त्व है। इन जीव प्रादि पदार्थो का जो सभी का ज्ञान प्रांशिक रूप में सत्य है, हाथी के एक-एक स्वरूप है उन्हें उसी रूप मे मोह तथा सशय आदि से रहित अग का ही तुमने अनुभव किया है ; इन सब का समुदित होकर जानना 'सम्यग्ज्ञ'न' कहलाता है। जीव आदि रूप हाथी है; हाथी के शरीर मे ये सभी अनुभव सत्य है; पदार्थों के स्वरूप के विषय मे विविध वाद प्रचलित है। किन्तु पाशिक रूप में । इसी प्रकार, किसी तत्त्ववेत्ता की उदाहरण के लिये जीवात्मा को ही ले लीजिये । बौद्ध के मत भांति जैन दर्शन ने वस्तुप्रो के स्वरूप को समझने के लिए में, क्षणिक पञ्चस्कन्ध की सन्तति से भिन्न कोई प्रात्मा अनेसान्तवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। नहीं है। इसीलिये उसे अनात्मवादी कहा जाता है। अनेकान्तवाद क्या है ? इसका विचार कैसे हुमा? न्याय-वैशेषिक की दृष्टि मे मात्मा नित्य है, कर्ता और किसी भी वस्तु को उसके अनेक (सभी सम्भव) पहलुप्रों भोक्ता है। वह शरीर मादि से भिन्न एक तत्त्व है। से देखना, जांचना अथवा उस तरह देखने की वृत्ति रखकर सांख्य-योग के मत में पुरुष या प्रात्मा बुद्धि से परे है, वह वैसा प्रयत्न करना ही अनेकान्त दृष्टि है। १. सम्पग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः-तत्त्वार्थसूत्र ३. वही, १४ । (मारियन्टल लाइब्ररी पब्लिकेशन, मसूर विश्व- ४. द्र०, सर्वदर्शन संग्रह, जनदर्शन । विद्यालय, १९४४), १.१॥ ५. १० सुखलाल सघवी, प्रस्तावना, सन्मतिप्रकरण २. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । वही, १.२ । (ज्ञानोदय दृस्ट, महमदाबाद, १९६३), पृ०५४।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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