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________________ राजस्थानी के अन्य प्रेमाख्यानकों की भांति ही कुशललाम के प्रेमाख्यानों में यों तो नवरस खोजे जा कुशललाम के प्रेमाख्यानकों में भी पात्रों का जीवन- सकते हैं । परन्तु प्रधानता शृंगार रस की ही है। जैन व्यापार एवं क्रियाकलाप मानव की मूल प्रवृत्तियों के कथात्मक प्रेमाख्यानों में शान्तरस सहायक एवं उद्देश्यपूर्ति अनुसार संचालित हैं। इन मूल प्रवृत्तियों में काम मोर के रूप में प्रयुक्त रस है। श्री श्रीचन्द जैन के अनुसार, मात्मप्रदर्शन की मूल प्रवत्तियों का चित्रण प्रमुख रूप से "जैन काव्य में शान्ति या शम की प्रधानता है अवश्य, हमा है । नायक-नायिकामों में डटकर मिलनोत्सुकता के किन्तु बह प्रारंभ नहीं परिणति है।.....'नारी के धंगारी मूल मे उनका रूपाकर्षण एवं मासल सुख-प्राप्ति की तीव्र रूप, यौबन तथा तज्जन्य कामोत्तेजना प्रादि का चित्रण लालसा है । विरहकाल मे भी यदि उन्हें कोई वेदना है इसी कारण जैन कवियो ने बहुत सूक्ष्मता से किया है।" तो मात्र उनके रसगधयुक्त यौवन के प्रभाव की। सभी प्रेमाख्यानो का प्रारंभ मगलाचरण द्वारा किया कवि ने अपनी काव्यवस्तु को हृदयंगम कराने के गया है। जैनेनर काव्यो मे यह मगलाचरण गणपति, लिये सादृश्यमूलक उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षादि अलंकारों का सरस्वती, शकर और कामदेव की स्तति द्वारा किया गया प्रयोग किया है। यह प्रयोग सहज, स्वाभाविक एवं है, जबकि जन रचनामों मे सरस्वती वदना के साथ भावोत्कर्षक है। इन प्रर्थाल कारों के अतिरिक्त इनमें राजस्थानी के वयण सगाई अलंकार' का भी सफल निर्वाह गुरुवंदना, जिनप्रभ, पाथ यदाता आदि की स्तुति के साथ हुया है। मगलाचरण के बाद इनमे जबूद्वीप, शत्रुजय गिरि, कवि परिचय का भी उल्लेख किया गया है । इनमें प्राडा खवाळा पापणा, घणे गमे बेसाड्या घणा । वर्णनात्मकता का बाहुल्य है। कवि ने इन रचनाओं का (ढोलामारवणी च उपई, चौ०६८)। मन्त पुष्पिका द्वारा किया है जिनमे कवि ने अपने गुरु रायह दीठो तेह सरूप । खरतरगच्चीय उपाध्याय अभयधर्म तथा स्वय का (भीमसेन हसराज चउपई, चौ०६८)। नामोल्लेख किया है। सोवन मइ-सुंदर आवास दुशललाभ की प्राधिकाश प्रेमाख्यानक रचनात्रों में (तेजसार रास चउपई, चौ० ३१७)। अधिकारिक कथा का प्रारभ प्राय: किसी नि.सन्तान कुशललाम ने अलंकारो के साथ ही विविध छंदों का राजा अथवा पुरोहित द्वारा संतान-प्राप्ति के प्रयत्न के भी प्रयोग किया है। ये छंद है-दूहा, चउपई, गाहा, वर्णन से हुआ है । देवी-देवता, ऋषि-मुनि के अभिमत्रित छप्पय, कवित्त, सर्वया, बेक्खरी, त्रोटक, वस्तु, काव्य, फल अथवा उनके बताये अनुसार पुष्कर या अन्य पवित्र छन्द, रोमकी, नाराच, त्रिभंगी, चावकी इत्यादि । इन स्थलो' की जाव देने पर उस गजा के यहा पुत्र अथवा छदो के अतिरिक्त कवि ने लोक प्रचलित ढालों को ग्रहण पुत्री का जन्म हुआ है । युवा होने हर किसी अपराध में कर इन रचनायो को संगीतात्मकता प्रदान की है। संगीत पिता से कहा-सुनी होने पर या राजाज्ञा से' नायक को को बनाये रखने की दृष्टि से अनेक स्थलों पर कवि द्वारा घर छोड़ना पड़ा है। इसी निष्कासन से नायक के प्रयुक्त उपयुक्त छद काव्यशास्त्रीय लक्षणों से मेल नहीं वैशिष्ट्य के द्वारा इन रचनाओं में प्रेम तत्त्व उभरा है। (शेष पृ०६०पर) १. माधवानल कामकंदला च उपई, ढोलामारवणी चउपई तेजसाररास चरपई, भीमसेन हंसराज चउपई । तेजसार रास, पारवनाथ दशभव-स्तवन प्रादि रचनाए। ३. माधवानल कामकदला च उपई, अगड़दत्तरास, स्थूलि भद्रछत्तीसी। ४. जैन कथानों का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. १३२-३३ । ५. 'वैण सगाई' कविता के किसी चरण के दो शब्दो में प्रायः करके प्रथम और अन्तिम शब्दो के संबन्ध स्थापित करती है। यह संबन्ध एक ही वर्ण अथवा मित्र वर्गों के द्वारा किया जाता है। ---नरोत्तमदास स्वामी- 'वण सगाई' लेख-राज स्थानी, दाल्यूम २, सं० १९६३ ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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