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प्रनेकौत
८२ वर्ष ३०० ३-४
तसा व परतन्त्रता रहेंगीं. सयन से पराङ्मुख रहना जीवन की स्वतन्त्रता-सुख शान्ति से हाथ धोना है। महावीर में ब्रह्म व्रत में को ही स्षीय माना है। ब्रह्मच प्रस्वाद का पाता है। अच्छा-बुरा, खट्टाi मीठा, नौरस सरस, प्राकर्षण विकर्षण के मध्य समरेना खींचना ब्रह्म है। यहाँ शरीर का ममत्व स्वतः सिज विसर्जित हो जाता है फिर की मंजिन भी हाथ मा जाती है। जब तक वैभव का सोखना कृत्रिम प्रदर्शन दिया जाएगा तब तक समाज मे ऊंच-नीच की दीवारें ऊँची ही रहेंगी और व्यक्ति व्यक्ति के बीच दूरी बनी रहेगी। उन बी-नी दीवारों को गिराये बिना मानवसमाज में शान्ति कहाँ, एकता कहाँ, स्वाधीनता कहाँ ? जहाँ एक धौर प्रपार वैभव होगा और दूसरी ओर पार विपन्नता होगी तो समाज मे विसंगतिय तथा वित के विपर लोगों को हराते ही रहेंगे, सकल वातावरण प्रदूषित और लंबित ही रहेगा। वैभव का विसर्जन समाज में, जाति में ऐक्य स्थापित करता है । प्रजातन्त्र में इसी का विसर्जन है।जय विसर्जन नहीं होगा स्यावृत्ति नहीं यायेगी और न ही सब मिलकर एक साथ चल सकेंगे। साधना या तर के मार्ग पर व्यक्ति अकेला चल सकता है; लेकिन धर्म का मार्ग व्यक्तिगत नही, समाजगत तथा समूहान मार्ग है। धर्म सबको साथ लेकर चता है । जब तक विसर्जन न होगा, त्यागवृत्ति न होगी, तब तक हमको नहीं चल सकते । त्याग-भाव ही से तो हम दूसरो को अपने साथ लेकर चल सकते हैं, दूसरों से तादात्म्य स्थापित कर सकते है, उनके प्रति संवेदनशील हो सकते है। महावीर का प्ररिग्रह समानता प्रोर तज्जनित विसंगतियों का निरसन कर समाजवाद के प्रादर्श की प्राप्ति में सहयोग देना है । प्रजातन्त्र समाजवादी भावना को ग्रात्ममात् त्रिये है, इसलिए संग्रहवृत्ति के स्थान पर त्यागवृत्ति को महत्व देना ही पड़ेना । संग्रवृत्ति वैभव-प्रदर्शन, महार और मनकार के साक्षात् रूप हैं जो प्रजातन्त्र में, समानता मेस्मे, समाजवाद में भारी बाधा बन कर खड़े हो जाते हैं। प्रजातन्त्र मे जहाँ महत्तर-वृति के पजे मजबूत हुए वहीं तानाशाही का भयावह रूप परिलक्षित
होने लगेगा । जहाँ ममत्व है, होने लगेगा। जहाँ मगस्य है, मूच्र्छा है वही अधर्म है, वहीं तन्त्रता है ।
प्रजातन्त्र में सामाजिक ऐक्य को प्राथमिकता दी जाती है; मानव-जाति में ऐक्य की प्रतिष्ठापना प्रजातन्त्र ।
है यहाँ सामसेवक, स्त्री पुरुष को पृथक-पृथक कर्तव्य या अधिकार नही दिये जाते, भेद दृष्टि का निराकरण हो जाता है। इस प्रकार की भेद-दृष्टि का निराकरण महावीर के उपदेशों का मेरुदण्ड है। प्राचार्य उमास्वामी ने 'तत्वार्थ सूत्र' में सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्र के समन्वय पर विशेष बल दिया है। महावीर ने जब यह कहा कि 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है' ( श्राचारांग सूत्र १- ५ - ५ ), तो वह सगत्व का ही उच्चादर्श प्रस्तुत करता है - आत्मा के एकत्व पर ही बल दिया गया है । प्रजातन्त्र में जातीय भेद या वर्गभेद के लिए कोई स्थान नहीं; रगोनस्ल की वरिष्ठता निरर्थक है। जहाँ रगोनस्ल की वरिष्ठता की आकाश बेल फैलने लगेगी, वहां जातीय स्वतन्त्रता का विटप सुखता चला जाएगा तथा ऊपर से साम्प्रदायिकता की आधी उसे समूल उखाड़ फेंकेगीसमाज की प्रगति एकदम से ठप हो जाएगी, कहीं दाक्ति का नामोनिशान तक न रहेगा। महावीर ने अपने समयसरण में किसी भी सम्प्रदाय या वर्ग के प्रवेश पर कोई प्रतिबन्ध नही लगाया था। उनका धर्म मानवजाति का धर्म है, किसी सम्प्रदाय या जाति विशेष का धर्म नही । वह श्रात्मा की पवित्र गंगा है, जिसमें सब साथ मिलकर निमज्जन कर सकते है- वह सभी के पाप-कलुष को धोनेयात्रा निर्मल का है। महावीर सम्प्रदायातीत है और प्रजातन्त्र भी सम्प्रदायातीत है। यहां सभी को अपने मतो-विचारों को अभिव्यक्ति देने का समान अधिकार है तथा सभी को अपनी कुशलता-योग्यता के अनुकूल उप्रति के समान अवसर प्राप्त है। महावीर ने व्यक्ति में इस प्रकार के ग्रात्मस्वातन्त्र्य को हजारों वर्ष पूर्व जागृत किया था ।
घासक्ति है, अहंकार है, तानाशाही है, वही पर
प्रजातन्त्र में हम अपने मत को मान्यता को जितना महत्व देते है उतना ही दूसरों के मत की मान्यता को महत्व देते है। यदि इसके विपरीत भाचरण करेंगे तो