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________________ भगवान महावीर की प्रजातान्त्रिक दृष्टि प्रजातन्त्र की सफलता स्वतन्त्रता, समानता, वैचारिक उदारता, सहिष्णुता, सापेक्षता तथा दूसरों को निकट से समझने की मनोवृत्ति के विकास पर अवलम्बित है, जिसके प्रभाव में गणतन्त्र का अस्तित्व सदैव संदिग्ध ही रहेगा । महावीर गणतन्त्र के प्रबल समर्थक है, उनके उपदेशों में व्यक्ति-स्वातन्त्र्य, सामाजिक साम्य, आर्थिक साम्य, धार्मिक साम्य प्रादि पर विशेष बल दिया गया है और ये ही गणतन्त्र के सुदृढ स्तम्भ है । यदि इनमें से कोई एक दुर्बल या शिथिल हो गया तो समझिये गणतन्त्र का भवन चरमराकर गिर जाएगा। महावीर ने एक गणतन्त्र राज्य में जन्म लिया था परन्तु वहाँ व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का सर्वथा लोप था; दास प्रथा इतनी व्यापक तथा दयनीय थी कि मनुष्य मनुष्य का क्रीत दास बना हुआ था, एक व्यक्ति दूसरे के अधीन था, स्वामी का सेवक पर सम्पूर्ण अधिकार था । दास, दासी, नारी सभी का उसी प्रकार परिग्रह किया जाता था जैसे वस्तुओं, पदार्थों और पशुओंों का परिग्रह करते है । उस युग में जातीय भेदभाव की कृत्रिम खाईं बहुत चोड़ी थी। सामाजिक और प्रार्थिक वैषम्य के कारण चतुर्दिक् प्रशान्ति और कलह का वातावरण था, मताग्रह की प्रचण्ड प्रांधी ने सम्यक् दृष्टि को धुंधला कर दिया था । यही सब कुछ देखकर महावीर ने व्यक्ति स्वातन्त्रय का उपदेश किया । स्वतंत्रता की सिद्धि के लिए प्रहिंसा, सत्य श्रीर ब्रह्मचर्य की त्रिवेणी में अवगाहन करना पड़ता है। हिंसा के द्वारा हम सभी के साथ मंत्री भाव रखते हैं धौर इस मंत्री में ही समानता की मनोवृत्ति विद्यमान है। महावीर ने सभी प्राणियों के साथ मंत्री रखने का प्रतिपादन मोर किसी का वध या प्रनिष्ट करने का निषेध किया है । यहाँ भाकर हम अपने दुख के समान दूसरों के दुःख का समान स्तर पर अनुभव करते है, यानी 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का चिरादर्श प्रस्तुत करते हैं । प्रजातन्त्र में भी अपने समान दूसरों की स्वतन्त्रता का प्रादर किया जाता है तथा डा० निजामुद्दीन 'स्व' की संकीर्ण नली छोड़कर 'पर' के राजमार्ग पर साथसाथ चलते हैं - दूसरों के महत्व को स्वीकार करते हैं। श्राज यदि बंबकों को मुक्त किया गया हैं, भूमिहीनों को भूमि प्रदान की गयी है, बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने की समुचित व्यवस्था की जा रही है - बैंकों से प्रासान सूद पर ऋण की व्यवस्था की जा रही है तो यह दूसरों की स्वतन्त्रता की ही स्वीकृति है । यह मान्य है कि पराधीनता में सुख-सुविधाओं का मार्ग खुला रहता है, लेकिन ऐसी सुख-सुविधाएं अधिकतर शारीरिक आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र की उपलब्धियों तक ही परिसीमित रहती है, जबकि स्वतन्त्रता का मार्ग कष्ट और असुविधानों से श्रपूर्ण रहता है । कष्ट भोर असुविधाओं के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्रता का, मुक्ति का परम सुख शान्तिमय गन्तव्य हाथ श्राता है । परतन्त्रता में हमें घर मिलता है प्रावास सुख मिलता है लेकिन स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए घर से बेघर होना पड़ता है । घर व्यक्ति को बन्धन मे रखता है, स्वतन्त्रता मे हम घर का त्याग कर प्रशस्त चौराहे पर आकर खड़े हो जाते है -दूसरों के साथ रहते है, दूमरो को अपने साथ रखते है । जब देश स्वतन्त्रता के लिए जी-जान की बाजी लगाकर संघर्ष कर रहा था, तो लोगो ने घरो का परित्याग कर दिया था नोकरियाँ तक छोड़ दी थी । घर से बाहर माना- घर और परिवार के प्रति ममत्व के विसर्जन करना है और सभी मनुष्यों को अपने परिवार में शामिल करना है । यही है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का उच्चादर्श की प्राप्ति | महावीर की अहिंसा इसी स्वतन्त्रता - प्राणिजगत् की स्वतन्त्रता का कल्याणप्रद प्रादर्श प्रस्तुत करती है "हिंसा निवणा दिट्ठा सम्बभूएस संजमो ।” अर्थात् प्राणिमात्र के महिंसा है भौर जब तक प्रति जो संगम है, वही पूर्ण जीवन मे श्रसंयम रहेगा तब
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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