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________________ भगवान महावीर की प्रजातान्त्रिक दृष्टि ८३ प्रजातन्त्र का गला घुट जाएगा उसकी हत्या हो जागी। उसहार असा लोगों के रक्त गे न लिखा जाता । इस यहाँ सभी को समान स्तर पर एक ही मंच पर खड़ होकर प्रकार की विकट समस्यापो का निदान सज ही एक अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है, सभी को सदभावपूर्ण समझौते के द्वारा सभा हो सकता था। अपनी निष्ठानुसार धर्माचरण करने की स्वतन्त्रता । प्रजातन्त्र में वाद-विवाद के द्वारा सर्वमान्य सत्य की खोज इसी को हम महावीर के अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में की जाती है । संसद् या विधान-मण्डल में विपक्षीदल के देख सकते है। सत्य किसी एक व व्यक्ति या सम्प्रदाय मत को भी मान्यता दी जाती है। विपक्ष की धारणाश्री की बपौती नही है, वह तो सबका है और सभी के पास में भी सत्यता का कोई-न-कोई अश विद्यमान रहता है। रात्यांश हो सकता है। हमे दुराग्रह को त्यागकर सम्यक् एक जैनाचार्य का मत है -- दृष्टित्व अपना कर सत्य का रूप जहा भी प्राप्त हो पक्षपातो न मे वीरो न द्वेषः कपिलादिषु । अगीकृत करना चाहिए । मनाग्रही सत्य के द्वार तक नही युक्तिमद्वचन यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।। जा सकता। सस्प का मार्ग प्रशस्त है, उसमे संकीर्णता नही, विस्तार और आपकता है । हमें अपना मत जितना अर्थात् मुझे न तो महावीर के प्रति कोई पक्षात है प्रिय है, दूसरे को भी प्राना मत उतना ही प्रिय है; और न कपिलादि मनिवन्द के प्रति कोई ईष्यपि है जो। फिर हमे का अधिकार है कि दूसरे के मत का खण्डन वचन तर्कसम्मत हो उसे ग्रहण करना श्रेयस्कर है । महाकरें। महावीर ने अनेकान्त द्वारा एक वैचारिक क्रांति वीर ने 'यही है' को मान्यता नही दी, उन्होने यह भी है' डत्पन्न की, उन्होंने वैचारिक माहिष्णता का परिचय को मान्यता प्रदान कर पारम्परिक विगेको तथा मताग्रहों घलन्द करके सभी को उके नीचे खड़े होने और अपना की लोह श्रृंखला को एक ही झटके मे विच्छिन्न कर अभिमत व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की। दिया। उन्होंने सत्य को सापेक्षता मे देखा, एकागीपन मे उन्होन बतलाया घरतु या पदार्थ मनेक धर्म अथवा गुण नहीं और उसे शब्द दिये स्यावाद की शैली में । प्रजातन्त्र विशेषता सम्पन्न होता है, उसमें एक ही गुण या विशेषता की पूर्ण सफलता और उसकी उपादेयता मनेकान्तदृष्टि में का प्राधान्य नहीं रहता। पत्नी केवल पत्नी ही नही होता ही सन्निहित है, जिसे माज की भाषा मे 'सर्व वर्म-समभाव' वह पत्नी के साथ-साथ एक ममतामयी माँ, प्यारी सहेली. कहा जा सकता है। प्राज का युग मतवादी होकर भी विश्वसनीय मित्र, लाड़ली बेटी, प्रिय भाभी भी होती है, मताग्रही नही है, वह वैचारिक सहिष्णुता एवं उदारता अर्थात वह विवियरूपा है। इसी प्रकार, अनेक धर्मों के का युग है, दुराग्रह का नहीं है। कारण प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप में विद्यमान है, उसके प्रजातन्त्र मे लोकव्यवहृत भाषा को महत्व दिया नानाविध रूप होते है-'प्रनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् सः जाता है, उसे ही राष्ट्रभापा या राजभाषा का रूप दिया भनेकान्तः'। उपाध्याय यशोविजय ने कहा है-'सच्चा जा सकता है। किसी एक सीमित या विशिष्ट मम्प्रदाय अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नही करता, वह सम्पूर्ण की भाषा को बहुसख्यक भाषाभाषियों पर थोपा नहीं जा दृष्टिकोण को इसी प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे सकता। एक सार्वजनिक सभा में कोई मम्कृत में भाषण कोई पिता अपने पुत्रों को। माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का देने लगे तो उससे कितने लोग लाभान्वित होगे ? मट्रीभर गढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है।' जब विचारों में इस हो न । महावीर ने अपने उपदेशों को मट्टी भर लोगो तक प्रकार माध्यस्थ भाव रहेगा या हम दूसरों के विचारों नहीं पहुंचाना चाहा वरन् असंध लोगों तक, मानवऔर मतों को सहिष्णता से सनेंगे, समझेंगे, हृदयंगम जाति तक पहुंचाना चाहा और उसम्प्रेषित किया करेंगे तो सभी प्रकार के वैचारिक संघर्ष नष्ट हो जाएंगे। प्रसंस्थ लोगों की भाषा मे-लोकभाषा पबंगागधी मे । फिर राजनैतिक मानचित्र पर बड़े-बड़े मतबाद युद्वोन्मुखी प्राज किसी भी प्रजातन्त्र देश में जाकर देखिए, वहाँ शासन संघर्षों को जन्म न दे सकेंगे। यदि ऐसा होता तो वियत- का सर्वाधिक कार्य उसकी भरने देश की बहसपक लोगों नाम या इस्राइल-मरब की रक्तरंजित समस्याओं का [ शेष पृष्ठ ८६]
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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