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________________ जैन-कला विषयक साहित्य 0 डा० जे०पी० जन धर्म और संस्कृति की भांति 'कला' शब्द भी बहु- अर्थात् जीवन में सौंदर्य तथा समृद्धि का संचार, व्यक्तित्व परिचित. बहप्रचलित और बहचचित रहा है। बला की का संस्कार और चित्त-प्रसादन होता है। इस प्रकार अनेकविध परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ की गई है। 'कल' सक्षेप में कलाकार की निज की सौन्दर्यानति की लोकोनर घात से व्युत्पन्न होने के कारण 'कला' शब्द का अर्थ होता प्रानन्द-प्रदायिनी रसात्मक अभिव्यक्ति को 'कला' कर है करना, सृजन, रचना, निर्माण या रिष्पन्न करना' सकते है। पौर 'क लातीति कला सूत्र के अनुसार 'जो प्रानन्द दे सुदूर प्रतीत से चली प्राई तथा प्रायः सम्पूर्ण भारतवह कला है।' शवागम में उसे 'किचित्कर्तृत्वलक्षण' वर्ष में अल्पाधिक ब्याप्त जैन सस्कृति का विभिन्नयुगीन संचित कर्तत्वशक्ति माना है, और क्षेमराज के कलावैभव अतिश्रेष्ठ, विपुल एवं विविध है। अपने विविध पनसार 'कला मात्मा की वह कर्तृत्वशक्ति है जो वस्तुपो रूपों को लिये हुए काव्य और संगीत को छोड़ भी दे मोर व प्रमाता के स्व को परिमित रूप में व्यक्त करे । वात्स्या- केवल चित्र, मूर्ति एव स्थापत्यशिल्प को ही ले, जैसा कि बने कला का सम्बन्ध कामपुरुषार्थ के साथ जोड़ा है कलाविषयक माधुनिक ग्रन्थों मे प्रायः किया जाता है. तो और उसके ६४ मख्य भेद तथा ५१८ मवान्तर भेद किये भी इन तीनों ही से सम्बन्धित कलाकृतियों मे. बाहल्य और प्राचार्य जिनसेन के अनुमार, प्रादि पुरुष भगवान् एव विविधता की दृष्टि से जैन परम्परा किसी अन्य नपरुषों की ७२ और स्त्रियो की ६४ कलाओं परम्परा से पीछे नहीं रही है। अतएव भारतीय कला दी थी। इनमें गमस्त लौकिक साहित्य में भी जैनकला का अपना प्रतिष्ठित स्थान मान-विज्ञान, कला-कौशल, हस्तशिल्प, मनोरजन के साधन रहा है। मादि समाविष्ट हो जाते हैं । कला साहित्य दो प्रकार का होता है-एक तो उपर्यक्त समस्त कलाएँ मुख्यतया दो वर्गों में विभा- तकनीकी, जिसमे कलाविशेष की कृतियों के निर्माण के जित की जाती है-उपयोगी कला और ललित कला। सिद्धान्त, विधि, सामग्री प्रादि का वैज्ञानिक विवेचन उपयोगी कलामो में निर्मित वस्तु की उपयोगिता की दृष्टि होता है; दूसरा वह जिसमे विशेष कलाकृतियों का विवरण का प्राधान्य रहता है, जबकि काव्य-संगीत-चित्र-मूति- या वर्णन होता है, तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षण और स्थापत्य नामक पाँचो ललितकलामो मे प्रानन्द प्रदान मूल्याङ्कन भी होता है। प्राचीन साहित्य में मानसार करने की दष्टि का प्राधान्य एवं महत्त्व रहता है। किसी समरागण सूत्रधार, वास्तुसार जैसे ग्रन्थो में प्रथम प्रकार देश, जाति या परम्परा की सास्कृतिक बपौती या समद्धि का कलासाहित्य मिलता है। मानसार को कई बार का मुल्याङ्कन उसकी ललित कलाकृतियो के प्राधार पर जैनकृति मानते हैं, ठक्करफेरु का वास्तुसार तथा मण्डन. ही बहुधा किया जाता है। वे संस्कृति विशेष के प्रति- मन्त्री के ग्रन्य तो जैन रचनाएँ है हो। रायपसेणय बिम्ब एवं मानदण्ड, दोनों ही होती है। जैसा कि एक प्रादि कतिपय प्रागमसूत्रों मे भी इस प्रकार की क्वचित विद्वान् ने कहा है, 'कला नागर-जीवन की समृद्धि का सामग्री प्राप्त होती है। प्रतिष्ठापाठों में जिनमतियों एवं प्रमुख उपकरण है और उसके द्वारा सुख-सौभाग्य की अन्य जैन देवी-देवताओं का प्रतिमाविधान वर्णित है। सिद्धि के साथ-साथ व्यक्तित्व का परिष्कार भी होता है, जैन पुराण एवं कथासाहित्य में अनेक स्थलों पर विविध
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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