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६२, वर्ष ३०, कि० ३-४
हवं मया दष्ट तत्ति बल का-बकभार्या माहो- गई हैं; वे सब प्रायः श्वेत रंग की बस्तों या प्राणियों स्वित् पताका-ध्वजा वर्तते ।'
से की गई हैं। इससे भी ध्वज का श्वेत होना सिद्ध होता -तत्त्वार्थवृत्ति (धुतसागर सूरि) १४१५ है। तथाहि
'इलक्षणांशुकध्वजा रेजः पवनान्दोलितोत्थिताः। व्यो--अर्थात् जो शुक्लरूप मैंने देखा वह बगुली है या
मांबुनिधेरिवोद्भूता तरंगास्तुंगमूर्तयः ।।२२३॥ ध्वजा, ऐसी जानने की इच्छारूप-ज्ञान ईहा है । इसी प्रसग में पज्यपादाचार्य सर्वार्थ सिद्धि मे निम्न प्रकाश देते हैं- 'बहिर्वजेषुवर्हालिलीलयोक्षिप्तवहिणः । रेजर्गस्तांश'यथा शुक्लं रूपं कि बलाका पताकेति वा।'-- इसी प्रसंग का सर्पबुद्धयेव प्रस्तकृत्तयः ।। २२४|| को श्रीमदभयदेव सूरि ज्ञान मार्गणा मे मतिज्ञान के
हंसध्वजे ध्वभहसाश्चच्या ग्रसितवासस । निजां प्रसावसर पर इस भांति निबद्ध करते है--'अवग्रहण रयन्तो या द्रव्यलेख्यां तदात्मना ।।२२८॥ वेतमिति ज्ञातेऽथ विशेषस्य बलाका रूपस्य पताका
'मृगेन्द्र केतनाग्रेषु मृगेन्द्राः क्रमदित्सया । कृतयत्नाविरूपस्य वा यथावस्थितस्य प्राकांक्षा ।'
रेजुस्ते जेतुं वा सुरसागजान् ।।२३१।। उक्त प्रसगों से स्पष्ट है कि उन दिनों ध्वज का श्वेतपही प्रचलित रहा है, जो सहज-स्वभावनः प्राचार्यों के स्थूलमुक्ताफलान्येषां मुखलम्बीनिरेजिरे । गजेन्द्रकंभकथन में पाया और ध्वज की समता श्वेत-बगुली से की संवेदात् संचितानि यशांसि वा ॥२३॥
का रूप श्वेत न होता पीर पंचरणा होता 'उक्षा शृंगाग्रससक्त लंबमानध्वजांशुकाः । रेजुविपक्षमाल शब्द दिया जाता और ना ही बगुली से जित्येव संलब्यजयतना: ॥२३३॥ उसकी समता की जाती।
'उत्पुष्कर. कररूढाध्वजारेजुर्गजाधिपाः । गिरीन्द्र इव प्राचार्य जिनसेन ने ध्वज के श्वेत होने का बारम्बार उल्लेख किया है। जैसे-'यस्याः सीधावलीश्रृङ्गसगिनी कटाग्रनिपतत्पृथु निराः॥२३४॥ केतुमालिका। कैलाशकूटनिपत द्धं समाला बिलंघते।' 'चक्रध्वजासहस्रार: चक्ररुत्सर्पदंशुभिः। बमुनिमता महापराण ४११० ॥ तथा "सितपयोधरा नीलः करीन्द्रः साध स्पर्धा कर्तुमियोद्यता: ।।२३५॥ सितकेतनः। सबलाविनीलाभ्रः संगता इव रेजिरे॥'
~ महापुराण (जिनसेनाचार्य) पर्व २२ -वही १३२५२
-उक्त इलोकों मे ध्वज की समता या उत्प्रेक्षा उस नगरी के बड़े-बड़े पक्के मकानों के शिखरों पर
जिनमे की गई है वे सभी श्वेत वर्ण है। यथा- तरंग, फहराती हुई पताकाएँ कैलाश शिखर पर उतरती हुई हंस
केंचली, हंगों की द्रव्यलेश्या, ऐरावत या देव-गज, यश, माला को तिरस्कृत करती है। सफेद वादल सफेद पता.
जय-विजय, निर्भर, और सूर्यकिरण प्रादि । यदि मूलकामों सहित हाथियों से मिलकर ऐसे शोभायमान हो
मस्व.ध्वज अन्य किन्हीं रंगो का होता तो प्राचार्य श्वेत रहे थे मानो बगुला पक्षी सहित काले बादलों से मिल
वर्ण की समता न दिखाते । रहे हों।
उक्त उद्धरणों से सहज ही जाना जाता है कि ध्वज महापुराण पर्व २२ श्लोक २२३ के पर्थ में श्री पंडित श्वेत होते रहे हैं । केतुमालिका, हंसमाला, सित-पयोघर, पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा है-'ध्वजाएँ सफेद वस्त्रों सित-केतन और बलाका सफेद हैं इसे सहज ही जाना जा
की बनी हुई थी।'-उसी प्रकार पर्व १६ के ३८ वें सकता है।
श्लोक मे भी श्वेत ध्वज का स्पष्ट उल्लेख है-श्वेतकेतुइसी महापुराण में समवसरण के वर्णन के प्रसंग में
पुरं भाति श्वेतः केतु भियततः ॥'
पुरम जो उपमाएं ध्वज के लिए दी गई हैं या जो उत्प्रेक्षायें की इस विषय में अन्य उद्धरण भी दर्शनीय है। था
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