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जैन य: स्वरूप और परम्परा
१. 'तुंग-भवण मणि-तोरणावद्ध-अवल-पय वडुद्धब्यमाण।' इसी प्रकार इस संबन्ध में अन्य प्रमाण भी हैं
-कुवलयमाला (उद्योतनसूरि) पृ०७ वो कुन्देन्दु तुषार हार धवलो द्वाविन्दनीलामी । २. 'रवि-तुरय-गमण-संताव-वाय मुह-फेण-पुंज पवलइए। द्वौ बन्धुक सम प्रभो जिन वृषो द्वौच प्रयंगुप्रभो। कोहि-पडागा-णिवहे जा मरुय-चंचले वहई ।'
शेषा षोडश जन्म मृत्यु रहिता संतप्त हेमप्रभा-।
- वही पृ. ३१ स्ते सज्ञान दिवाकरा सुग्नुता सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः ।। ३. 'जाव सुक्किल्ल चामरज्मया अच्छा सहा रुप्यपट्टा 'वे रत्ता वे साँवला बे निलुप्पल वण्ण ।
वरामयदण्डा ।'-जम्वृदीबपण्णत्ति, सूत्र ७४ मरगज वण्णा वेवि जिण सेसा कंचनवण्ण ॥' मादि पृ० २८६
यदि उक्त माघार को ठीक मान लिया जाय तब ४. 'ते च सर्वेऽपि कथंभूता इत्याह-प्रच्छा प्राकाश
प्रचलित किए हुए पंचरंगा ध्वज में काला-नीला दोनों ही स्फटिकवति निर्मलाः, इलक्षण पुद्गलस्कधनिर्मा
रग मानने पड़ेंगे पोर प्रचलित ध्वज बिसंगति में पड़ पिता; रूप्यमयो वनमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येपा ते
जाएगा क्योकि उसमें इन दोनों रंगों में से एक का ही तथा। वजमयो दण्डो रूप्यपट्ट मध्यवर्ती येषांते
ग्रहण है । फिर रंगों के विषय में हरा रंग भी विवाद तथा।'
का विषय है, जब कि एक स्थान पर हरे के उद्धरण को -वही, (टीका-वाचकेन्द्र श्री मच्छातिचन्द्र पृ. २६२
स्वीकार किया गया है और एक स्थान पर नहीं। इसके त्रिलोकसार' जी में ध्वजा के लिए अन्य वर्णों का
सिवाय ध्वज का प्राचीन प्रचलित एक रूप भी स्थिर न सकेत नही मिलताः अपितु यह अवश्य मिलता है कि- हो सकेगा-वह सदा मस्थिर परिवर्तनशील ही रहेगा तत्कालीन नगरों में एक नगर 'श्वेत-ध्यज' नाम का था। अर्थात तीथंकरों की वद्धि के साथ ही ध्वज के रंग में अन्य बहुत से नगरों के नाम तो है-जो संभवत: उनके बद्धि माननी पड़ेगी मोर पंचरंगी ध्वज की प्राथमिक स्वामियों के चिन्ह से चिन्हित ध्वज का सकेत देते है। प्राचीनता सिद्ध न हो सकेगी। यथा-प्रथम पाँच जैसे-सिंहध्वज नगर, गरुणध्वज नगर आदि। पर, तीर्थंकरों के युग तक पीत ध्वज, छठवें के युग में पीतपीत-ध्वज रक्त-ध्वज नील-वज प्रादि ध्वज जैसे नाम
रक्त ध्वज, सातवें के युग में पीत-रक्त-नील ध्वज, पाठ बाले नगर नहीं है। देखें गाथा ६६७। इसी ग्रन्थ की। के युग मे पीत-रक्त-नील-श्वेत ध्वज और वीसवें के युग गाथा १०१० से ये भी स्पष्ट होता है कि-ध्वजों से पीत-रक्त-नील-श्वेत-कृष्ण ध्वज । यदि हरा भी लिया की दो श्रेणियाँ हैं -मुख्यध्वज और क्षुल्लक ध्वज जाय (जैसा कि उल्लेख मिलता है) ता ध्वज पंचरंगा के [इसके संबन्ध मे ऊपर लिखा जा चुका है] मनीषी स्थान में छह रंगा ठहरेगा। इस प्रकार परिवर्तनशील बिचार करें।
ध्वज की जैन धर्म जैसी स्थिर प्राचीन एक रूपता नहीं ध्वज के पंचरंगा होने में दूसरी बात कही जा रही मिलेगी और यह प्राचीन-जनधर्म जैसा प्राचीन, ध्वज है तीर्थंकरों के शरीर के वर्ण के प्रतिनिधित्व की। नही ठहरेगा मपितु परिवर्तनशील सामाजिक-ध्वज ही यतः
ठहरेगा। 'पउमप्पह वसुपुज्जा रत्ता धवला हु चंदपह सुविही।
ध्वज के पंचरंगा होने में तीसरी बात पंच-परमेष्ठियों णीला सुपास पासा णेमी मुणिसुब्बया किण्हा ॥
की प्रतिमाओं के रंगों की दृष्टि से कही जा रही है। सेसा सोलह हेमा...' ......त्रिलोक सार ८४७
श्वेताम्बर अथ 'मानसार' में लिखा है कि-पाचों - पद्मप्रभ, वासु पूज्य लाल वर्ण, चन्द्रप्रभ, सुविधि
परमेष्ठियों की पांच प्रतिमाएँ यथाक्रम से इन वर्गों की धवलवर्ण, सुपावं, पावं नीलवर्ण, नेमि, मुनिसुव्रत होती हैं-१ स्फटिक (धवल) २ अरुणाम, ३ पीलाम, कृष्णवर्ण और शेष सोलह तीर्थकरपीतवर्ण के हैं। ४ हरिताभ, ५ नीलाम । तथाहि