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राजस्थान में मध्ययुगीन जैन प्रतिमाएं
डा० शिवकुमार नामवेव मध्यकालीन राजस्थान में कला के विकास को की भुजाओं में वरद, वज्र, पद्मकलिका, कृपाण, खेटक, विभिन्न राजा-महाराजाओं द्वारा समूचे रूप में प्रोत्साहित पद्यमालिका, घण्ट एवं फल प्रदर्शित है । यक्षी के पाने मे किया गया था। व्यक्तिगत ऐश्वर्य को लिरस्थायी रखने पारम्परिक आयुधो (पाश एवं अग) एव वाहन वाले शासक भवन-निर्माण एवं मन्दिर-निर्माण पर (कक्कुट सर्प) का अभाव है, परन्तु मां-फगो का चित्रण अत्यधिक ध्यान देते थे । राजस्थान के अत्यधिक भूभाग मे पद्मावती की पहचान का समर्थक है। दूसरी ओर भुजा मध्य-कालीन जैन प्रतिमाएं स्वतन्त्र रूप से एवं मन्दिरों मे सर्प की अनुपस्थिति एव सर्प फणो का मग उग देगी के पर उत्कीर्ण मिलती है।
महाविद्या वैरोट्या से पटवाग के विरुद्ध है। प्रतं कनो जोधपूर से उ० ५० ५६ किलोमीटर की दूरी पर मे भजाओं मे सर्वदा सर्प से युक्त वैरोट्या के मरतक पर ओसिया नामक स्थान है। यह समृद्धिशाली नगर था, कभी गर्पफण का प्रदर्शन नहीं प्राप्त होता है। जहां ब्राह्मण एवं जनों के लगभग २० मन्दिर निमित हुए राजस्थान मे लूनी पुनाकाब लाइन पर नालोतरा थे। ओसिया का प्रमुख जैन मन्दिर भगवान् महावीर स्टेशन है। वहां मे ६ मील पर पहाडों मे नाकोडा का है। इस मन्दिर का निर्माण आठवी सदी के अन्तिम पार्श्वनाथ स्थान है । ग्यारहवी सदी मे नाकोडा नामक ग्राम काल में हुआ था तथा उसका पुननिर्माण दसवी सदी मे मे भूमि खोदते ममय पाश्वनाथ की मनोहर प्रतिमा मिली
आ था। जोधपुर राज्य के इतिहास के प्रथम भाग मे थी जो अब वहा के मन्दिर में स्थापित है। ओसिया का विवरण देते हुए श्री गौरीशंकरजी ओझा ने जैसलमेर की पुरानी राजधानी लोहवा मे सात जैन लिखा है कि यहाँ एक जैन मन्दिर है जिसमें विशालकाय मन्दिर है। ये सातों मन्दिर तीन मंजिले हैं । यहा मुख्य महावीर स्वामी की मूति है। यह मन्दिर मूलतः सवत् मन्दिर सहस्रफण पार्श्वनाथ का है। यह मूर्ति अत्यन्त ८३० (ई० ७७३) के लगभग प्रतिहार राजा वत्सराज के भव्य एवं कलापूर्ण है। उदयपुर से ४० मील पर धलेव समय में बनाया गया है । मन्दिर की निकटवर्ती धर्मशाला गांव अतिशय क्षेत्र है। नदी के पास कोट के भीतर एक का पाया खोदते समय श्री पार्श्वनाथ की एक धातु प्रतिमा प्राचीन मन्दिर है। यहां आदिनाथ का मन्दिर है। यहां मिली थी, जो सम्प्रति कलकता के एक जैन मन्दिर मे केशर बहुत अधिक चढाई जाती है, इसी से इसका नाम विद्यमान है।
केशरियानाथ पड गया। मन्दिर के सामने फाटक पर इस महावीर मन्दिर के मुखमण्डप के उत्तरी छज्जे गजारूढ़ महाराज नाभि और मरुदेवी की मूर्तियां है। पर पदमावती यक्षी की प्रतिमा उत्कीर्ण है। कुक्कुट सर्प चौहान जाति की उपशाखा देवडा के शासकों की पर विराजमान द्विमजी यक्षी की दाहिनी भुजा मे सर्प भूतपूर्व राजधानी सिरोही की भौगोलिक सीमाओं में और बायीं मे फल है। स्पष्ट है कि पद्मावती के साथ स्थित देलवाडा के हिन्दू और जैन देवालय प्रसिद्ध है। आठवी सदी में ही वाहन कुक्कुट-सर्प एवं भुजा में सर्प धगतल से एक मील उतर में पहाड़ी की चोटी पर स्थित को सम्बद्ध किया जा चुका था।
देलवाड़ा के पांच जैन मन्दिर श्वेत संगमरमर से निर्मित ग्यारहवी सदी की एक अष्टभुजी प्रतिमा राजस्थान के है। ये मन्दिर आज भी उन पोरवाल जाति के महाजनों झालरापाटन के जन मन्दिर (सन १०४३) की दक्षिणी (विमलशाह, वस्तुपाल एवं तेजपाल) का स्मरण कराते हैं, वेदिका पर उत्कीर्ण है। ललितमुद्रा में विराजमान यक्षी जिन्होंने चाँदी के सिक्के व्यय करके परमार शालकों से