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अनेकान्त
५०, वर्ष ३०, कि० ३-४
जिसमें लिखा है कि मसऊद ने कौड़ियाल के मैदान में देशी राजाओं को पराजित किया था, किन्तु राजा सुहलदेव के आते ही युद्ध की स्थिति बदल गई । मसऊद 'रजब' की १८वी तारीख सन् ४२४ हिजरी को अपने साथियो सहित मारा गया ।
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एशियाटिक सोसाइटी के सन् १९०० के के प्रथम पृष्ठ पर मि० स्मिथ का लेख है उसमें लिखा है कि राजा सुहलदेव 'भर-पारू' जाति अथवा 'डोम' जाति का था । वह सहेट- महेठ अथवा अशोकपुर का शासक था। सालार बहराइच मे राजा सुहलदेव के हाथों मारा गया। अशोकपुर में भी सुहलदेव और सालार से युद्ध हुआ था। राजा सुहलदेव जैन था ।
जनरल कनिघम ने सुहलदेव को गोंडा का 'थारू' राजा लिखा है । वंश परिचय में लिखा है कि उसका आदि पुरुष मोरध्वज (सन् १०० ई० में) था। उसके बाद इस वश में हंसध्वज ( हंसधज) सन् ६२५ ई० मे, मकरध्वज ( मकरधज ) सन् ६४० ई० में और सुनन्यध्वज सन् ६७५ ई० मे तथा सुहृदलध्वज सन् १००० ई० मे हुए है । उस समय नगरी का नाम चन्द्रिकापुरी था ।
'अकियालाजिकल सर्वे की रिपोर्ट मे लिखा है कि राजा सुहृदलध्वज वहाँ का अन्तिम जैन- राजा था । यह इतिहास में सुहिलदेव या सुदिलदेव एवं सुहिगल के नाम से विख्यात है। यह महमूद गजनी का समकालीन था और इसी सुहिलदेव का सालार मसऊद से युद्ध हुआ था ।
अन्यत्र वर्णित है कि आठवी शताब्दी में 'सुधन्वा' नाम का श्रावस्ती का राजा था। यह जैनधर्मी था। इस राजा के दरबार में स्वामी शंकराचार्य एवं जैन विद्वानों का शास्त्रार्थं हुआ था । शंकराचार्य विजयी हुए और ने वैदिकधर्म स्वीकार कर लिया था। तभी से सुधन्वा उसके वंशज वैदिकधर्म का पालन कर रहे हैं, किन्तु उन की सहानुभूति अभी तक बराबर जैन धर्म के प्रति बनी हुई है । इसीलिये १२वीं शताब्दी तक भी जैन धर्म का हास नहीं हुआ ।
मखकृत श्रीकण्ठवरित में राजा सुहलदेव के सम्बन्ध में लिखा है कि 'भंख' के प्राता अलंकार ने अपने यहां उच्चकोटि के साहित्यिकों की एक गोष्ठी आयोजित की
थी। उस गोष्ठी में राजा सुहलदेव पधारे थे। (राजतरंगिणी ८.३३५४.२ ) । उस समय अलंकार विदेश मन्त्री था। राजतरंगिणी में उसे सन्धिविग्रहिक लिखा है। (श्रीचरित, अ० २५ )
अलंकार और मंख दोनो कश्मीर के दो राजाओं के समय उच्च पदाधिकारी थे । प्रथम राजा सुसाल था और दूसरा जयसिह सुमाल का समय १११२ ६० सन् से । लेकर ११२८ ई० सत् तक और जयसिह का ११२८ से ११४६ ई० सन् तक था। श्रीकण्ठचरित का रचनाकाल सन् १९३५ से ११४५ के मध्य माना जाता है। राजतरंगिणी का रचयिता कल्हण मंख और अलंकार का सम्बन्धी था ।
बोदग्रन्थो में 'अनाथपिण्डद' नाम से श्रावस्ती के सबसे बड़े धनी सुदन सेठ का कथन है। उस सेठ ने १८ करोड स्वर्ण मुद्राएं देकर प्रसेनजित राजकुमार से जेतवन का बगीचा उपागत गौतम बुद्ध के लिए खरीदा था। इसी उदार प्रवृत्ति के कारण सेठ 'मुदरा' की उपाधि 'मन' प्रचारित हुई। सेठ सुदन का परिचय बौद्ध ग्रन्थों मे 'सेट्ठि' उपाधि से है। इसी सेट्ठि' का अपभ्रंश 'सहेट' है और सेठ की उपाधि महन का 'महेट' प्रचलित हो गया है । अब 'श्रावस्ती' सहेट-महेट के नाम से जानी जाने लगी है।
राजा सुहलदेव ने 'गोडा-फैजाबाद' मार्ग पर बसे आलोकपुर (टटीला ) ग्राम में एक दुर्ग का निर्माण कराया था। उन्होंने इस दुर्ग के निकट भी दो बार मुस्लिम सेना को परास्त किया था। बहराइच जिले का 'चदरा का किला' भी राजा सुहलदेव द्वारा ही निर्मित है । ( इण्डियन ऐंटीक्वेरी, पृ० ४६ ) । संयद सालार मसऊद के साथ हुए युद्ध में राजा मुहमदेव के विजयी होने के पश्चात् केवल श्रावस्ती ही नहीं, अपितु पूरा अवध क्षेत्र ही निष्कण्टक हो गया था। राजा के पुत्र, पौत्र एवं प्रपोत्रों आदि ने लगभग दो सौ वर्षों तक शान्ति और धर्मपूर्वक बावस्ती का शासन सूत्र सम्हाला । ई० सन् १२२६ में शमसुद्दीन अल्तमश के ज्येष्ठ पुत्र मलिक ने अवध के इस अंचल को जीतकार अपने अधीन किया। तबकाने नासिरी में यह (शेष पृष्ठ ५३ पर)